script‘जहर’ भरा जीवन | Be Alert: Life filled by 'Poison' | Patrika News

‘जहर’ भरा जीवन

locationजयपुरPublished: Jan 02, 2019 03:10:29 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

मुनाफे की भूख के चलते बीमारियां देने वाले उत्पाद बनाने वाली कंपनियां हों या फिर खेती करने वाले किसान, हालात सुधारने के प्रयास सभी को करने होंगे।
 

Poison in environment

Poison in environment

कुछ दिन पहले एक खबर आई थी कि नवजात शिशुओं के साबुन-पाउडर बनाने वाली एक बहुत पुरानी, प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कंपनी के उत्पाद में कैंसर को बढ़ावा देने वाले तत्त्व हैं। उसी समाचार में यह भी था कि इस बात का पता पिछले ६० साल से सबको है, बनाने वालों को भी और बेचने वालों को भी। अंजान हैं तो सिर्फ उसे काम में लेने वाले। अब एक और खबर, घरों में हद से ज्यादा सफाई और जीवाणुरोधी साबुन के इस्तेमाल को लेकर आई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे कैंसर बढ़ता है। इसका कारण वे बच्चों में कीटाणुओं से लडऩे की क्षमता का विकसित नहीं हो पाना मानते हैं। यह पहली बार नहीं है, जब शोधकर्ता ऐसे तथ्य सामने ला रहे हैं। पिछले एक दशक में तो ऐसे अनुसंधानों की बाढ़-सी आई है। कई बार तो उनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगते हैं। लोग इसके लिए व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता को जिम्मेदार ठहराते हैं।

बहरहाल, ऐसा कुछ ही मामलों में होता है। ज्यादातर मामलों में देखें तो ऐसी खोज सही ही लगती है। इसकी ठोस वजह पिछले वर्षों में कैंसर का सुरसा के मुंह की तरह बढऩा है। आज से तीन दशक पहले कैंसर से मौत के गिने-चुने मामले ही सामने आते थे, लेकिन आज शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसके परिवार या मित्रों के परिवार में कोई इसका शिकार नहीं बना हो। निष्कर्ष पर बहस हो सकती है, लेकिन इसका एक बड़ा कारण खेतों में फर्टिलाईजर्स का बेतहाशा उपयोग भी माना जा रहा है। कुछ वर्ष पहले पत्रिका ने एक रिसर्च के परिणाम प्रकाशित किए थे जिसमें शोधकर्ता ने मां के दूध तक में जहर के अंश पाए थे। इसकी वजह और कुछ नहीं, मां द्वारा सेवन किया वह अन्न था जिसकी वजह से दूध तक में जहर की सेंधमारी हो गई। इसी तरह मोबाइल टॉवरों से निकलने वाला रेडिएशन भी इसकी बड़ी वजह माना जाता है। इन टॉवरों के रेडिएशन को लेकर मोबाइल कंपनियां हद दर्जे की मारामारी पर उतर आती हैं। कोई भी कंपनी यह मानने को तैयार नहीं है कि इन टॉवरों से निकलने वाली तरंगों से मानव स्वास्थ्य को कोई नुकसान हो सकता है। जब उनको इस बारे में हुए शोध और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से परिचित कराया जाता है तो वे मनमानी पर उतर आती हैं। देश की सत्ता के गलियारों से मजबूत रसूखात रखने वाली कंपनियां तो ऐसी किसी चर्चा में शामिल होना भी पसंद नहीं करतीं। वे तो टॉवर लगाने के आदेश जेब में रखती हैं। रातोंरात टॉवर खड़ा कर देती हैं। कोई मरे या जिंदा रहे, उनकी बला से।

सवाल इन निष्कर्षों के सही-गलत होने का नहीं है। सवाल है, इन पर हमारी सरकारों के, हमारे समाज के नजरिये का। कैंसर बीमारी के इतना भयावह रूप लेने के बाद भी जैसे सरकार और समाज के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। न सरकार उनकी सत्यता की पड़ताल करने के लिए कोई ठोस कदम उठाना चाहती है और न ही समाज उन्हें लेकर कोई बड़ा आंदोलन करता दिखता है। खेत-खलिहान से लेकर वायुमण्डल तक फैल रहे इस जानलेवा प्रदूषण से हमें चेतने की जरूरत है, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब व्यक्ति की दिन-ब-दिन कम होती, रोगाणुओं से लडऩे की क्षमता, हमें खड़ा रहने लायक भी नहीं छोड़ेगी। हालात आज भी कुछ अच्छे नहीं हैं। डेंगू, स्वाइन फ्लू और जीका जैसी बीमारियां आएदिन लोगों की जान ले रही हैं। समय से नहीं चेते तो खेतों के जरिए वितरित हो रहा यह जहर, देश ही नहीं दुनिया के विनाश का कारण बन जाएगा। आज तो बीकानेर जैसे देश के कुछ ही हिस्सों में कैंसर ट्रेन चल रही है। यही हाल रहा तो हर ट्रेन कैंसर ट्रेन होगी। उस स्थिति में हमारे पास सिवाय अफसोस करने के कुछ नहीं बचेगा। उम्मीद है, सरकारों की कुम्भकर्णी नींद इस तरह के शोध से खुलेगी और वह बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब सभी को इस बीमारी से बचाने के कारगर उपाय करेगी। यह दायित्व उन कंपनियों का भी है जो मुनाफे की भूख में सेहत से खिलवाड़ कर रही हैं। ज्यादा पैदावार की भूख में खुद किसान भी इसमें पीछे नहीं है। आज तो वह अपने और परिवार के लिए अलग से जैविक खेती करता है। कल भूख और बढ़ गई तो मार उसके अपनों पर भी पड़ सकती है। सबके प्रयासों से ही हालात सुधर सकते हैं।

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