अगस्त क्रांति का पूरे देश में बिगुल फुंक चुका था, लेकिन आगरा में 10 अगस्त को इसकी शुरुआत हुई। आंदोलन के प्रमुख बाबूलाल मित्तल भूमिगत होकर वृंदावन चले गए। जब पूरे देश में इस आंदोलन की चिंगारी चरम पर थी, तो बाबूलाल मित्तल को निर्देश मिले कि आगरा में आंदोलन शुरू किया जाए। इसके बाद बाबूलाल मित्तल आगरा आए। फुलट्टी बजार से एक बड़ा जुलूस निकाला गया, जिसमें हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ थी। यह देख अंग्रेजी हकूमत के अफसरों के माथे पर पसीना आ गया। इस जुलूस के बाद मोतीगंज स्थित कचहरी के मैदान में होने वाली सभा कैसे भी न हो सके, इसके लिए अफसरों ने एड़ी- चोटी का जोर लगा दिया।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि शिरोमणि ने बताया कि 10 अगस्त 1942 को पूरे शहर में पुलिस का सख्त पहरा था। अंग्रेज पुलिस की गाड़ियां सायरन बजाती हुईं इधर-उधर दौड़ रहीं थी। मोतीगंज के मैदान का मुख्य फाटक बंद था। उसके सामने सशस्त्र सिपाहियों की लंबी कतार मौजूद थी। उनसे आगे कुछ फासले पर इसी तरह की तीन कतार और भी थीं। पास ही डटे हुए थे पुलिस अधिकारी। आभास हो चुका था कि आज पुलिस की गोलियां चलनी हैं, लेकिन आजादी का जुनून इस कदर छाया हुआ था कि हर एक पुलिस की गोलियां के सामने अपना सीना लाने के लिए तैयार था।
शशि शिरोमणि ने बताया कि चुंगी मैदान के पास मशाल जुलूस जैसे ही पहुंचा, आंदोलन के प्रमुख बाबूलाल मित्तल को गिरफ्तार कर लिया गया, बस इसी बात को लेकर भीड़ा का गुस्सा फूट पड़ा। बाबूलाल की गिरफ्तारी के विरोध में नारेबाजी शुरू हो गई। भीड़ में से किसी शरारती तत्व ने एक पत्थर फेंका, जो अंग्रेज पुलिस के एक दरोगा के सिर जाकर लगा। इसके बाद अंग्रेज पुलिस हरकत में आ गई। तीन तीन कतारों ने पोजीशन ले ली। वहां पहले पत्थर की मंडी लगा करती थी, कुछ लोग हाथीघाट जाने वाली सड़क पर जमा थे, कुछ पत्थरों की आड़ में छिपे हुए तमाशा देख रहे थे। इस दौरान पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। लोग भयभीत होकर इधर उधर भाग रहे थे। कुछ आजादी के परवाने पुलिस की गोलियों के चीरते हुए उनके सामने दौड़ने लगे। यह देख अंग्रेज पुलिस के छक्के छूट गए। अंग्रेज पुलिस को भीड़ ने चुंगी के फाटक तक खदेड़ दिया।
हाथीघाट से जो सड़क दरेसी की तरफ जाती है, उस पर अंगेज पुलिस की कड़ी नाकाबंदी को चीरता हुआ एक नौजवान आगे बढ़ रहा था। हाथ में तिरंगा था, तभी पुलिस की बंदूक गरजी, एक गोली उसकी बांह में लगी वह उठा, चला लेकिन फिर बंदूक की धांय धांय सुनाई दी, जिसमें छीपीटोला के रहने वाले आंदोलनकारी डॉ. सी ललित की टीम के परशुराम की सीने को छलनी कर दिया। परशुराम के जमीन पर गिरते ही पूरा माहौल एकदम शांत हो गया। अंग्रेज पुलिस वाले शहीद परशुराम के शव को मोटर लारी में डालकर जिला अस्पताल ले गए। किसी ने दौड़ कर छीपीटोला स्थित उसके निवास पर उसकी शहादत की सूचना दी। बदहवास मां बाप और रोते बिलखते परिजन भी घटनास्थल पर आ गए। उसकी मां के करुण रुदन से मौजूद लोगों के हृदय फट रहे थे। सभी की आंखों से अश्रुओं की धारा बह रही थी।
आजादी का जश्न जो आज मनाते हैं, इसमें परशुराम जैसे न जाने कितने युवक देश पर अपने प्राण न्योछावर करके चले गए। यह आंदोलन परवान चढ़ा और अंग्रेजों को अंत में भारत छोड़ना पडा। शशि शिरोमणि ने बताया कि उस समय आगरा बड़ा केन्द्र हुआ करता था। राजस्थान और एमपी के आंदोलन की रणनीति भी यहीं से तय हुआ करती थी। आगरा में इस आंदोलन के बड़े नेता ताजगंज के भगवती प्रसाद शर्मा, प्रकाश नरायण, गोपाल राम, आदिराम सिंघल, जगन प्रसाद रावत के साथ कई बड़े नाम रहे थे।