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श्री गंगानगर

केर, खेजड़ी तथा जाल के फूलों से महका टिब्बा क्षेत्र का रेगिस्तानी इलाका

मरुधरा क्षेत्र को भीषण गर्मी में भी प्रकृति अपना श्रेष्ठतम उपहार देने को तैयार है। टिब्बा क्षेत्र का रेगिस्तानी इलाका इन दिनों केर ,खेजड़ी तथा जाळ के फूलों से महका हुआ है।

श्री गंगानगरApr 24, 2024 / 09:27 pm

Hanumant ojha

gift of nature मरुधरा क्षेत्र को भीषण गर्मी में भी प्रकृति अपना श्रेष्ठतम उपहार देने को तैयार है। टिब्बा क्षेत्र का रेगिस्तानी इलाका इन दिनों केर ,खेजड़ी तथा जाळ के फूलों से महका हुआ है। इस क्षेत्र में इन वृक्षों की संख्या बहुतायत में है। थोड़े दिन बाद इन वृक्षों के केरिये, सांगरी तथा पीलू फलने फूलने लगेंगे। केरिया, सांगरी व पीलू ओषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। रेगिस्तान के मावे एवं राजस्थान के पारंपरिक साग के रूप में प्रसिद्ध केर तथा सांगरी सबसे महंगी सब्जियों में शुमार हैं। जिनको सुखाकर काम में लिया जाता है। इसे प्रकृति का तोहफा ही कहेंगे कि रेगिस्तान की भीषण गर्मी में यह वृक्ष हरे- भरे और घने रहते हैं। तेज गर्मी में मरुधरा के इन वृक्षों को प्रकृति का एक वरदान और खजाना कहा जा सकता है। इसके अलावा प्रतिकूल परिस्थितियों में मरु प्रदेश ये वृक्ष अत्यधिक गर्मी के मौसम में जीव-जन्तुओं, पशु पक्षियों तथा कीट-पतंगों का आश्रय स्थल भी है।

रेगिस्तान का खजाना हैं खेजड़ी वृक्ष

टिब्बा क्षेत्र के गांवों के लोगों के लिए खेजड़ी वृक्ष पवित्र तो है ही, साथ ही यह किसी खजाने से कम नहीं है। जेठ (ज्येष्ठ) के महीने की भीषण गर्मी में जब अन्य पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं, तब पशुओं के लिए चारा व छाया नहीं रहती हैं। तब यह पेड़ चारा (लूंग) व छाया देता है। बुजुर्ग ग्रामीण हरिराम गोदारा ने बताया कि खेजड़ी के वृक्ष की जड़ें गहरी होती हैं। इस कारण इसे कम पानी की आवश्यकता होती है। खेजड़ी वृक्ष पर्यावरण को शुद्ध करने के साथ ऊंट व भेंड़ बकरी को भोजन भी उपलब्ध करवाता है। इसकी पत्तियां नीचे गिरकर जमीन को उपजाऊ बनाती हैं। उन्होंने बताया कि जिस खेत में खेजड़ी के वृक्ष अधिक हैं, वहां फसल का उत्पादन हमेशा ही अच्छा होता हैं। इसके फूलों (लिमछर) से बनी सांगरी से सब्जी बनाई जाती है। जो बहुत ही स्वादिष्ट व पौष्टिक होती है। इसको सुखाकर भी काम में लिया जाता है। सांगरी पांच सौ रुपए प्रति किलो व सीजन में इससे भी अधिक बाजार भाव में बिकती है। प्राचीन परंपरा के अनुसार आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियां तथा महिलाएं वैशाख महीने में खेजड़ी वृक्ष की पूजा कर पानी से सींचती हैं।
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ओरण में लगे केर ग्रामीणों के लिए वरदान

टिब्बा क्षेत्र के गांव देईदासपुरा व लधेर गांव के बीच स्थित गुसाईं जी महाराज की डेढ़ सौ बीघा ओरण भूमि में सैकड़ों की संख्या में कंटीली कैरियों के पेड़ हैं। इन केर के वृक्षों पर वर्ष में दो बार वैसाख व श्रावण महीने में कैरियेे लगते हैं। एक पेड़ पर औसतन 50 किलो कैरिये लगते हैं।आसपास के गांव देईदासपुरा, लधेर, सावंलसर, बछरारा, धीरदेसर, उदासर व सीरासर, साबनिया सहित अनेक गांवों से ग्रामीण कैरियेे तोडऩे के लिए आते हैं। इनकी प्रदेश में खूब मांग रहती है। ग्रामीण यहां से कैरिये विभिन्न जिलों में बेचने के लिए भेजते हैं। कैरिये से पौष्टिक व स्वादिष्ट आचार बनाया जाता है। जो काफी महंगा होता है। ग्रामीण बुजुर्ग महिलाएं केरियों को चार पांच दिन तक छाछ में नमक डालकर भिगोकर रखती हैं। फिर हल्का सा कूटकर नमक , मिर्च तथा अन्य मसाले डालकर सरसों के तेल में निकाल कर आचार बनाया जाता है। ग्रामीण ओम लोहार, हंसराज गोदारा,महेश ओझा व भरत गोदारा ने बताया कि सूखे केरिये बाजार में एक हजार रुपए प्रति किलो के भाव से बिकते हैं। साथ ही ग्रामीण अपने घरों में छह महीने तक इसको सब्जी बनाने के काम में लेते हैं।
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पचास डिग्री तापमान में भी वन्य जीवों काे आश्रय

रेगिस्तान में भीषण गर्मी में जब अधिकतम तापमान पचास डिग्री तक पहुंच जाता है। तब सभी पेड़ों की पत्तियां झड़ जाती हैं। लेकिन ऐसे विषम परििस्थति में भी जाळ का वृक्ष हरा-भरा और घना रहता है। इस वृक्ष पेड़़ पर गर्मी के मौसम में लगने वाले फल पीलू ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े चाव के साथ खाए जाते हैं। ग्रामीण बुजुर्ग के अनुसार पीलू लाल-गुलाबी रंग के होते हैं। वृक्ष के बीजों से प्राप्त तेल का उपयोग औषधियों में काम लिया जाता हैं। बुजुर्ग लोग आज भी इसकी टहनियों का उपयोग परंपरागत दातुन के रूप में करते हैं। रेगिस्तान में सूखे, अकाल, धूलभरी आंधी व अत्यधिक गर्मी से बेखबर ये वृक्ष मानव जीवन की रक्षा करने के साथ- साथ वन्य जीव-जन्तुओं, पक्षियों तथा कीट-पतंगों के लिए भी आश्रय स्थल हैं।

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