ज्योतिषाचार्य पंडित जनार्दन शुक्ल के अनुसार यह कहा जाता है कि रक्षाबंधन की शुरुआत इसलिए हुई कि माता लक्ष्मी ने राजा बलि को अपना भाई माना और उसे रेशम की डोरी से रक्षा सूत्र बांधा था। कथा के अनुसार जब देवाधिदेव देवराज इंद्र का सिंहासन डोल नहीं लगा और उस पर राजा बलि कब्जा करने के लिए पहुंचा तो इंद्रदेव भगवान विष्णु के पास पहुंचे। उनसे समस्या का समाधान करने की बात कही। तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से भिक्षा मांगी और बलि उनके दिए गए वचन को पूरा करते रहे। तीन पग भूमि मांगी गई तब राजा ने अपना शीश झुका दिया।
भगवान विष्णु के पैर रखते ही राजा बलि पाताल लोक पहुंच गए और बलि के द्वारा वचन का पालन किए जाने पर भगवान विष्णु को प्रसन्न हुए। उन्होंने वरदान मांगने का दे दिया। तब राजा ने कहा आप मेरे सामने बने रहने का वचन दीजिए। तब भगवान विष्णु उनके साथ रहने लगे। जिससे माता लक्ष्मी उदास हो गई और बलि से भगवान विष्णु को छोड़ने की आग्रह करने लगे। तब उन्होंने कहा कि आप मुझे भाई बना लीजिए तभी मैंने छोड़ूंगा और उपहार में उन्होंने भगवान विष्णु को लौटा दिया। जिस दिन यह घटना घटी उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी। जिससे यह त्यौहार रक्षाबंधन मनाया जाने लगा।
अन्य कथा में महाभारत में द्रोपदी ने श्रीकृष्ण को राखी बांधी थी। तब से यह प्रचलन शुरू हुआ है। महाभारत कथा के अनुसार जब श्री कृष्ण ने शिशुपाल का वध करने अपने चक्र को धारण किया। चक्र जब शिशुपाल की गर्दन काट के वापस लौटा तब भगवान श्रीकृष्ण की उंगली कट गई। उस से रक्त स्त्राव होने लगा तब द्रौपदी ने साड़ी का पल्लू फाड़ कर उनकी उंगली में बांध दिया। तब श्री कृष्ण ने उनकी रक्षा का वचन दिया। इसी ऋण को चुकाने के लिए जब उनका चीर हरण हो रहा था तब श्री कृष्ण ने द्रौपदी की लाज रखी।
पुराणों के अनुसार इंद्राणी ने इन्द्र को रक्षा सूत्र बांधा था। इसका भविष्य पुराण में बताया गया है। इसके अनुसार एक बार देवता और दानव में युद्ध हुआ। जिसमे देवताओं की हार निश्चित सी होने लगी थी। यह सब देखकर देवराज इंद्र की पत्नी शची ने विधान से एक रक्षा सूत्र तैयार किया। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन ब्राह्मणों द्वारा इस रक्षा सूत्र को इंद्र के हाथ में बंधवाया। परिणाम यह हुआ कि देवता असुरों से जीत गए। तब से यह रक्षाबंधन मनाने की परंपरा शुरू हुई है।