हमने शास्त्रीय कर्मों का अनुष्ठान तो किया, किन्तु भावुकता वश बीच-बीच में अपनी कल्पनाओं का समावेश भी कर डाला। अत: कर्म अपनी प्राणात्मक मूल प्रतिष्ठा से हटकर अनिष्ट का कारण बन गया। अभ्युदय-साधक कर्म भी काल्पनिक-दोष समावेश से दोष का जनक बन गया। अत: हमें अपनी दिग्देशकाल युक्त कल्पनाओं का समावेश नहीं करना चाहिए।
निषेधभाव
अस्थिर वृत्ति वाले मानव की मानसिकता है- निषेधभाव। इस निषेध-परम्परा का अभ्यास अभिनिवेश में परिणत हो जाता है। दुराग्रह पूर्वक की गई हठधर्मिता ही अभिनिवेश है। पूर्ण रूप से प्रभावी होने पर इसकी चिकित्सा संभव नहीं है।
यह निषेधात्मक भावुकता दो प्रकार की है-भीरुता और धृष्टता। भीरुता में आंशिक श्रद्धा, कोमलता व परदु:ख कातरता रहती है तथा स्वयं का स्वार्थ नहीं रहता। धृष्टता में जडभाव की प्रधानता, जघन्य स्वार्थ लिप्सा एवं परस्वार्थ की उपेक्षा रहती है। गीता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भीरुता अर्जुन में तथा धृष्टता दुर्योधन में कही जा सकती है।
अर्जुन अपनी भावुकता से (धर्म भीरुता) जहां निषेध भाषा (न योत्स्ये) की घोषणा कर रहा था, वहीं दुर्योधन अपनी कर्म भीरुता से निषेध भाषा का (नैव दास्यामि) का उद्घोष कर रहा था। दोनों ही निषेध भाषा बोल रहे थे, किन्तु एक धर्म प्रधान तथा दूसरा नीति प्रधान (धर्म निरपेक्ष) बन रहा था। महाभारत युग का समाज इन्हीं दो वर्गों में बंटा था। एक के शीर्ष पर युधिष्ठिर तथा दूसरे पर शकुनि था। यही धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र का भाव है। धर्म और नीति का सहचर भाव ही समस्या का वास्तविक समाधान होता है।
अधिकार
‘अधिकार’ शब्द के मोह ने ही अर्जुन को धर्मभीरु और दुर्योधन को कर्मभीरु बनाया। जहां दोनों के अधिकार केवल कर्म पर्यन्त ही सीमित थे, वहां दोनों ने ही फलांशों को ही अपने अधिकार का क्षेत्र बना डाला। ‘इस युद्ध में अपने स्वजन ही मारे जाएंगे, परिणामत: हमें पाप ही लगेगा।’ इस काल्पनिक फलांश दृष्टि ने अर्जुन को शास्त्र सिद्ध आधिकारिक कर्म से विमुख कर दिया। दुर्योधन को भी साम्राज्य सुख लिप्सा के फलांश ने अधिकार सिद्ध कर्म से परामुख कर दिया। दोनों ही फलों की आशा में आसक्त थे।
हालांकि कृष्ण के उद्बोधन के कारण अर्जुन का तो मोह भंग हो गया था किन्तु दुर्योधन का नहीं हो पाया। कृष्ण ने कहा था-‘मा फलेषु कदाचन’। ‘अर्जुन! तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर्यन्त ही सीमित है। अत: तुम्हें कभी फलों के प्रति अधिकार-बुद्धि नहीं रखनी चाहिए।’ इससे अनेक दोष पैदा हो जाते हैं।
इन दोषों की परिगणना करते हुए दूसरे अध्याय में (62-63) कृष्ण कहते हैं कि ध्यायतो विषयान् पुंस: जो मनुष्य कर्म के फलों की कल्पना में ही आत्मविभोर रहता है, वह कभी भी कर्म-स्वरूप सम्पन्न नहीं कर सकता। कर्मशून्यता में अभीष्ट फल से भी वंचित रह जाता है।
सत्कर्मों के प्रति अश्रद्धा रखते हुए अर्जुन की तरह असत् फलों की कल्पना करने लगता है। सत्कर्म फलों से वंचित रहता हुआ सभी फलों से शून्य ही बना रहता है। यही शून्यता ऐसे व्यक्ति को प्रतिक्रियावादी बना देती है। इसका व्यक्तित्व आवेश प्रधान हो जाता है।
आसक्ति
संग: तेषु उपजायते अर्थात् उन कर्मों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है। जो व्यक्ति कर्मकाल में ही फल प्राप्ति की अधिकार शक्ति का उपयोग करने लग जाता है, उसका कर्म कभी पूर्णत: सम्पन्न नहीं हो पाता। जो शक्ति कर्म में लगनी चाहिए थी, वह फल की आसक्ति में बंट जाती है। फल की आसक्ति उसको कर्म के स्थान पर विषयों से (फल के) ही बांधे रखती है। इसी आसक्ति को गीता में ‘संग’ कहा है।
संगात् संजायते काम: विषयों के साक्षात्कार अथवा काल्पनिक चिन्तन से विषय संस्कार उत्पन्न होते हैं। इनको वासना कहते हैं। इन वासना संस्कारों की घनीभूत अवस्था से ही ‘काम’ या कामना की रश्मियां निकलती हैं। यही फलकामना रूप प्रथम दोष है।
फल में आसक्त मानव का दूसरा दोष ईर्ष्या है। अकर्मण्य के मन में ईर्ष्या जाग्रत हो जाती है-‘यदि अमुक न होता, तो वह फल मुझे ही मिलता।’ ऐसे लोग सभी की समृद्धि के सहज शत्रु बन जाते हैं। व्यक्ति ईष्र्या किसी की समृद्धि से न कर, उसकी समृद्धि के कारणों से करे और वैसे ही कर्म में प्रवत्त हो तो यह शुद्ध मार्ग है।
कामात् क्रोधो: अभिजायते अर्थात् कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति के शरीर की अग्नि में क्षोभ उठता है। ताप जनित इसी क्षोभ को आवेश या उत्तेजना कहते हैं। एक सीमा के आगे यही क्रोध बन जाती है। यही तीसरा दोष-क्रोध है।