सम्मोहात् स्मृतिविभ्रम अर्थात् भिन्न-भिन्न अवसरों, परिस्थितियों के अनुरूप मन में संस्कार पैदा होते रहते हैं, प्रकट होते रहते हैं। इसी को याद आना-स्मृति-कहते हैं। क्षोभ के कारण संस्कारों का क्रम अस्त-व्यस्त हो जाता है। इस कारण स्मरण शक्ति भी सुरक्षित नहीं रहती।
यही ‘स्मृति विभ्रम’ दोष कहलाता है। मोहग्रस्त मानव के पतन का यह पंचम सोपान है। बुद्धिनाश
मन ही बुद्धि का आधार है। मन की स्थिति के उतार-चढ़ाव से बुद्धि में भी उतार-चढ़ाव आता है। शान्त मन में बुद्धि भी शान्त-स्थिर-स्वस्थ रहती है। जैसे शान्त जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब।
स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाश: अर्थात् जब एक बुद्धि नानाभाव युक्त हो जाती है तो अस्थिर जल के प्रतिबिम्ब की तरह एकभाव बुद्धि खण्ड-खण्ड हो जाती है। यही खण्डित अवस्था प्रतिबिम्ब का विनाश है। ऐसी ही स्थिति स्मृतिभ्रंश से भी हो जाती है। पतन के इस स्वरूप को बुद्धिनाश कहा है।
बुद्धिनाशात् प्रणश्यति अर्थात् बुद्धिनाश से मनुष्य का नाश हो जाता है क्योंकि बुद्धि से जब विवेक लुप्त हो जाता है तब वह निश्चित कत्र्तव्य पथ से युक्त नहीं हो पाती। नष्ट बुद्धि को गीता में अयुक्त कहा है।
परिणाम
फल में अधिकार बुद्धि रखने वाला कभी कर्तव्य-कर्म में जागरूक नहीं रह सकता। ऐसे फलासक्त को अयुक्तता, स्तब्धता आदि आठ उपलब्धियां प्राप्त होती हैं- (1) जो सदा लाभ का, फल का ही चिन्तन करता है, वह सबसे पहले ‘अयुक्तता’ प्राप्त करता है। कभी कर्तव्य-कर्म के साथ युक्त नहीं होता।
(2) प्राण (सूक्ष्म) शक्ति से युक्त कर्म से वंचित होने के कारण कालान्तर में वह ‘प्राकृत’ बन जाता है। पंच भौतिक विश्व में कृमि-कीट-पक्षी-पशु ये चारों प्राकृत जीव होते हैं। आत्म-स्वरूप इनके कर्मों में प्रकट ही नहीं होता। आहार-निद्रा-भय-मैथुन तक सीमित रहते हैं। यह प्राकृतता द्वितीय उपलब्धि है।
(3) अपनी प्राकृत सीमा में अमर्यादित पशुओं की तरह गर्जन करने वाला प्राकृत-बुद्धि शून्य मानव-बौद्धिक, प्रज्ञावान लोगों के सामने स्तब्ध, कुण्ठित, शून्य-शून्य बन जाता है। जैसे पिंजरे का शेर। यह ‘स्तब्धता’ तीसरी उपलब्धि है।
(4) प्राकृतिक प्राणियों पर समाज के नियम लागू नहीं होते। वह फल प्राप्ति के लोभ में अपने परिजनों तक से क्रूर बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रतिक्रियावादी, उद्दण्ड, विनयशून्य होकर जड़ता की अभिव्यक्ति करते हैं। यही ‘शठता’ रूप चौथी उपलब्धि है।
(5) पांचवीं उपलब्धि है-निकृति भाव। शठता युक्त हीन मानव का कोई ‘अपना’ नहीं होता। वह सबकी भत्र्सना, अवहेलना, तिरस्कार करता रहता है। इसी शठता की वृद्धि सीमा निकृति भाव है। यह ‘कृतघ्नता’ का ही दूसरा रूप है। इंसान तो फिर भी है ही। अत: असत् कर्मों में लिप्त रहकर भी दु:खी रहता है। फिर भी हीन भावों के आगे समर्पण नहीं कर पाता।
(6) सत्प्रवृत्ति इसे असत्कर्मों से निरुद्ध ही करती रहती है। इसके पास सत्कर्म का लक्ष्य नहीं रहता। असत्कर्मों में कई कारणों से निरन्तर प्रवृत्ति भी संभव नहीं होती। अत: इसका अधिक समय ‘आलस्य’ में ही बीतता है। यही सत्कर्म शून्य का छठी उपलब्धि है।
(7) जुआ, तस्करी, हिंसा, परपीडऩ आदि असत्-निन्द्य कर्मों से नीच प्रवृति-जन को अभीष्ट सम्पत्ति भी प्राप्त हो सकती है। काम-भोग भी बढ़ सकता है। फिर भी वह भीतर से असंतुष्ट, क्षुब्ध, विकम्पित ही रहता है। यही कर्मशून्य की ‘विषाद’ नामक सातवीं उपलब्धि है।
(8) विषाद वृत्ति ही इन्हें तन्द्रायुक्त बनाए रखती है। ये कार्य को सदा टालते रहते हैं। उद्यम-साहस-धैर्य-बुद्धि-शक्ति-पराक्रम आदि का स्थान निद्रा-तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य, दीर्घसूत्रता आदि ले लेते हैं। व्यक्ति दीर्घसूत्री बन जाता है। यह आठवीं उपलब्धि है। इनका कोई कार्य समय पर नहीं होता। और यदि होता भी है, तो विषाद युक्त, सर्वनाश का प्रवर्तक ही होता है।
इन आठों उपलब्धियों को गीता में एक ही श्लोक में संकलित कर श्रीकृष्ण कहते हैं-
‘अयुक्त: प्राकृत:, स्तब्ध:, शठो, नैकृतिकोऽलस:।
विषादी, दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥’ गीता 18.28
इस प्रकार एकमात्र फलाधिकारबुद्धि से ही मानव कर्तव्यनिष्ठा से वंचित रहता हुआ नाश परम्परा को प्राप्त करता है। फलाकांक्षी व्यक्ति कर्म पर अपना अधिकार खो देता है वह अपने लक्ष्य से च्युत होकर समूल नाश परम्परा को प्राप्त होता है।
प्रत्येक गुठली पेड़ बनना चाहती है। चाहती है कि उसके भी खूब फल लगे। छायादार वृक्ष बने। किन्तु संभव कैसे हो? गुठली को जमीन में गडऩा होगा। फल की इच्छा त्यागनी होगी। वृक्ष भी बन जाएगी अथवा नहीं, ईश्वर जाने। अत: उसका सम्पूर्ण अस्तित्व ही कर्म बन गया। सम्पूर्ण कर्म ही ब्रह्म बन जाता है।