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धर्म और अध्यात्म

नीर-क्षीर-विवेक

आग्नेय वृषा-पुरुष की प्रकृति की मूल प्रतिष्ठा जहां ‘अग्नि’ ही है वहां सौम्या योषा स्त्री की प्रकृति की मूल प्रतिष्ठा ‘सोम’ ही है

Oct 15, 2017 / 09:37 am

Gulab Kothari

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‘नीर-क्षीर-विवेक’ नामक लौकिक न्याय लोक में सुप्रसिद्ध है। ‘नीर’ आप: (पानी) है, एवं ‘क्षीर’ ‘आज्य’ (घृत) है। विश्व के गर्भ में नीर भी है, और क्षीर भी है। अर्थात् आप: भी है, और आज्य भी है। पानी और दूध (आज्य का मौलिक रूप) दोनों के सम्मिश्रण का नाम ही ‘विश्व’ है।
पुराण-कथानुसार त्रैलोक्य के पालनकर्ता भगवान् विष्णु अनन्त-शेषनाग की चिकनी-कोमल शैया पर ‘क्षीर समुद्र’ में ही शयन कर रहे हैं। जब भी धर्म विकम्पित हो जाता है, तब-तब ही शेषशायी भगवान् विष्णु क्षीर समुद्र का परित्याग कर अंश रूप अवतार लेते हैं। कौनसा है यह ‘क्षीर समुद्र’, जिसमें विष्णु शयन कर रहे हैं?
पारमेष्ठय विष्णु
स्वायम्भुव प्रजापति के वाग् भाग से उत्पन्न, सर्वत्र व्याप्त, ‘अप् तत्त्व’ का ही नाम है ‘परमेष्ठी’। इसी का नाम है पारमेष्ठय विष्णु। सरस्वती रूपा आङ्गिरसी श्री, एवं आम्भृणीरूपा लक्ष्मी ये ही दोनों आपोमय पारमेष्ठय विष्णु की पत्नियां हैं। जिनके सम्बन्ध में ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ’ (यजु:संहिता) यह प्रसिद्ध है।
पारमेष्ठ्य विष्णु का भृगु तत्त्व ही अपनी घनावस्था से ‘आप’ है, तरलावस्था से ‘वायु’ है, एवं विरलावस्था से ‘सोम’ है। जिनसे क्रमश: असुर-गन्धर्व-पितर नामक सर्ग बनते हैं। असुर आपोमय है, गन्धर्व वायव्य है एवं पितर सोम्यास: है। गन्धर्व प्राणात्मक वायव्य तत्त्व ही वह ‘अनन्त शेष नाग’ (सर्पणशील ‘यज्ञवराह’ नामक वायु) है, जिस पर पारमेष्ठ्य विष्णु शयन कर रहे हैं। पारमेष्ठ्य आप ही ‘नीर’ (पानी) है, सोम ही क्षीर (दूध) है, एवं दोनों का विभाजक है मध्यस्थ शेषनागात्मक-गन्धर्व प्राणात्मक वायु। पारमेष्ठ्य ‘सरस्वान्’ नामक समुद्र में नीर-क्षीर-वायु इन तीन तत्त्वों की सत्ता सिद्ध हो जाती है।
पांच भूतों में से मृत्-जल-तेज के नि:शेष हो जाने पर वायु ही शेष बच रहता है, जो प्राणवायु आकाशवत् नित्य ही माना गया है। यही भृगु के सम्बन्ध से ‘महान्’ कहलाया है। ‘यथाकाशगतो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्’-गीता। इस शेषता से ही यह सर्पणशील-प्रचण्ड वेग से घोधूयमान, आसुर-वारुण-अप्तत्त्व से विषाक्त बना हुआ-पारमेष्ठ्य वायु ‘अनन्त शेषनाग’ (सर्प) कहलाया है, जो सोम सम्बन्ध से कोमल भी है।
क्षीर भाव ‘दुग्ध’ है, और सौम्य है। यह सौम्य क्षीर उस आपोमय समुद्र में घुलमिल रहा है। मध्यस्थ-वायु ही इसको नीर से अलग करता रहता है। इसी पार्थक्य से इस सोममय क्षीर में चिदात्मा (विष्णु) अभिव्यक्त होते हैं। चिदात्मा की गर्भभूमि को ‘महद्ब्रह्म’ माना गया है, जो कि पितर प्राणमय-सौम्य-तत्त्व ही है। जिसके सत्त्व-रज-तम नामक तीन गुण माने गए हैं, एवं सूर्यानुगत अहंकृतिभाव, चन्द्रमानुगत प्रकृति भाव, एवं भूपिण्डानुगत-आकृति भाव ये तीन प्रकृति भाव माने गए हैं।
यह पारमेष्ठ्य-महद्ब्रह्म ही विश्व की मूल प्रकृति जननी माता है, जिसमें चिदात्मा विष्णु गर्भधारण करते हैं।* इसी भृगु-महद्ब्रह्म में ही चिदात्मा क्योंकि गर्भधारण करते हैं, इनके आप-वायु-सोम-नाम के तीन महिमा विवत्र्त हैं, अतएव इनके प्राणी सर्ग ‘आप्य जीव’ (जल के प्राणी) वायव्य जीव (वायु के मानव-पशु-पक्षी-कीट-कृमि-प्राणी) एवं सौम्य जीव (अष्टविध देव योनिसर्ग) नामक तीन प्रकार के माने गए हैं।
मम योनिम्र्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत! ॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय! मूत्र्तय: सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता ॥ – गीता

क्षीर की अभिव्यक्ति
चिदात्मा विष्णु जिसमें गर्भ धारण करेंगे, वहीं क्षीर की अभिव्यक्ति होगी एवं यही मूलसूत्र ‘नीर-क्षीर-विवेक’ का मूलाधार माना जाएगा। विश्व प्रजा को हम वृषा सर्ग, योषा सर्ग भेद से दो भागों में विभक्त मानेंगे, जिनके मूल पारमेष्ठ्य अङ्गिरा और भृगु ही बने हुए हैं। अग्नि सृष्टि ही वृषा सृष्टि है, एवं इसी का नाम है ‘पुरुष सृष्टि’। सोम सृष्टि ही ‘योषा सृष्टि’ है एवं इसी का नाम है ‘स्त्री सृष्टि’। आग्नेय पुरुष सर्ग तथा सौम्य स्त्री सर्ग दोनों ही सर्ग शरीर रूप से आपोमय ही हैं। किन्तु इन दोनों आपोमय शरीरों की मूल प्रकृति पृथक्-पृथक् है।
आग्नेय वृषा-पुरुष की प्रकृति की मूल प्रतिष्ठा जहां ‘अग्नि’ ही है वहां सौम्या योषा स्त्री की प्रकृति की मूल प्रतिष्ठा ‘सोम’ ही है। अतएव अग्नि प्रकृति प्रधान पुरुष की सृष्टि में शरीर में अप् तत्त्व के विद्यमान रहने पर भी ‘सौम्य क्षीर’ (सोमात्मक दूध) की अभिव्यक्ति नहीं होने पाती। इधर सोम प्रकृति प्रधान स्त्री की सृष्टि में इसके मूल प्रकृति रूप सोम भाव के अनुबन्ध से इस आपोमय शरीर में क्षीर (दूध) अभिव्यक्त हो पड़ता है। और ये पुरुष और स्त्री इन दोनों आपोमय शरीरों में से एक स्थान पर (स्त्री के शरीर में) तो क्षीर अभिव्यक्त हो जाता है, एवं एक स्थान पर (पुरुष के शरीर में) क्षीर अभिव्यक्त नहीं होता।
जहां क्षीर अभिव्यक्त होगा, वहीं चिदात्मा गर्भ धारण करेंगे। उसी क्षेत्र में प्रजनन धर्म अभिव्यक्त हो सकेगा। अतएव सौम्या, क्षीरिणी, मातृजाति ही महद्ब्रह्म की अभिव्यक्ति के द्वारा औपपातिक चिदंाश (जीवात्मा) को स्वगर्भ में धारण कर इसे भौतिक स्वरूप भी प्रदान करने में समर्थ बनती है। अपने आपोमय शरीर में अपनी मूलभूता सौम्या प्रकृति से ओत-प्रोत ‘क्षीर’ से इस ‘प्रजा’ को पोषण करने में भी समर्थ बन जाती है। पिता की तुलना में माता का स्थान क्यों सर्वोच्च माना गया? प्रश्न का भी यही मौलिक रहस्य है। जहां-जहां सौम्य-योषा-प्राण अभिव्यक्त होगा, वहीं-वहीं उसी-उसी आप: में अवश्य ही क्षीर अभिव्यक्त रहेगा। जहां-जहां क्षीर अभिव्यक्त होगा, वहीं-वहीं चिदात्मा अभिव्यक्त होगा। इस नीर-क्षीर-विवेक के माध्यम से ही मानव जीव के ‘जीवत्त्व’ से परिचित हो सकेगा। इसी परिचय से इसे स्वरूप बोध होगा, एवं यही स्वरूप बोध इसके अभ्युदय-नि:श्रेयस् का कारण बनेगा।
तेजोरूप आज्य
अप् तत्त्व में ही प्रकृति ने सौम्या सृष्टि (योषा सृष्टि) के अनुबन्ध से यह पय (दूध) प्रतिष्ठित किया है, परिणाम ‘आज्य’ (घृत) ही माना गया है। आज्य योषारूपा स्त्री का प्रकृति सिद्ध प्रतिष्ठा तत्त्व ही माना गया है। यही आज्य प्रजनन धर्मानुगता प्रजा का मूलाधार है। आज्य यज्ञ के द्वारा देवात्मा का प्रजनन ही अपेक्षित है, वह योषा पर ही अवलम्बित है।
आज्य तेजोरूप है। अग्नि वृद्धि करना आज्य का वह स्वभाव है। शुक्र वृद्धि करना दूसरा स्वभाव है एवं अमृत पोषण करना तीसरा धर्म है। मन-प्राण-वाक्-तीनों में वाक् शुक्र तत्त्व है। प्राण तेज है। मन अमृत है। घृत से वाङ्मय शुक्र की वृद्धि होती है। प्राणमय (ओजमय) शरीराग्नि प्रवृद्ध होता है। एवं मनोमय अमृत भाग का पोषण होता है। इस प्रकार यह आज्य तेज: शुक्र अमृत रूप प्राण-वाक्-मन का पोषण करता हुआ भूतात्मा की समृद्धि का कारण बनता है। घृत से बढक़र आत्म समृद्धि के लिए और दूसरा कोई उत्कृष्ट साधन नहीं है। आज्य का वास्तव में यही गुण है। ‘तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि’।

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