मेरा कर्मक्षेत्र बहुत बड़ा हैं, वह घर के बाहर भी और घर के अन्दर भी । घर में मेरी बराबरी की समझ रखने वाला कोई है ही नहीं । मैं जिधर देखती हूँ, उधर ही अपना अप्रतिहत कर्तव्य पाती हूँ । मेरे कर्तव्य में बाधा देने वाला कोई नहीं है, क्योंकि मैं वैसा सुअवसर किसी को देती ही नहीं । पुरुष मेरी बात सुनने के लिए बाध्य है – आखिर मैं गृहस्वामिनी जो हूँ । मेरी बात से गृह संसार उन्नत होता हैं । इसलिए पति के सन्देह का तो कोई कारण ही नहीं है और पुत्र, वह तो मेरा है ही, उसी के लिए तो हम दोनों व्यस्त हैं । इन दोनों को, पति को और पुत्र को अपने वश में करके मैं जगत् में अजेय हूँ । डर किसको कहते हैं, मैं नहीं जानती । मैं पाप से घृणा करती हूँ । अतएव डर मेरे पास नहीं आता । मैं भय को नहीं देखती इसी से कोई दिखाने की चेष्टा नहीं करता ।
संसार में मुझसे बड़ा और कौन है ? मैं तो किसी को भी नहीं देखती और जगत में मुझसे बढ़कर छोटा भी कौन है ? उसको भी तो कहीं नहीं खोज पाती । पुरुष दम्भ करता है कि मैं जगत में प्रधान हूँ, बड़ा हूँ, मैं किसी की परवाह नहीं करता । वह अपने दम्भ और दर्प से देश को कंपाना चाहता है । वह कभी आकाश में उड़ता है, कभी सागर में डुबकी मारता है और कभी रणभेरी बजाकर आकाश वायु को कंपाकर दूर दूर तक दौड़ता है, परन्तु मेरे सामने तो वह सदा छोटा ही है, क्योंकि मैं उसकी माँ हूं । उसके रुद्र रूप को देखकर हजारों लाखों काँपते हैं, परन्तु मेरे अंगुली हिलाते ही वह चुप हो जाने के लिए बाध्य है । मैं उसकी माँ – केवल असहाय बचपन में ही नहीं सर्वदा और सर्वत्र हूँ । जिसके स्तनों का दूध पीकर उसकी देह पुष्ट हुई है, उसका मातृत्व के इशारे पर सिर झुकाकर चलने के लिए वह बाध्य हैं ।