राजस्थान में तो जलसंग्रह के इस अचूक तरीके को ग्रामीण समाज वर्षों से अपनाता रहा है। बाड़मेर के एक गांव सारणों का तला के सरकारी विद्यालय का उदाहरण काफी है। ग्राम पंचायत ने वर्ष 1981 में विद्यालय परिसर में टांका बनवाया। यहां जमीन पर श्रमदान से आगोर का निर्माण कर दिया। आगोर बनने से आज भी बारिश की एक-एक बूंद टांके में उतर जाती है। इससे सभी को पीने के लिए पानी मिल जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘पालर’ कहते हैं। गत 37 वर्षों से यहां जल का संकट नहीं रहा।
अकाल राहत कार्यों में बड़े पैमाने पर टांकों का निर्माण करवा कर जल संकट को दूर करने की पहल वर्ष 1986-87 में हुई। पिछले वर्षों में रेगिस्तान के इलाकों में टांकों का निर्माण नाडियों एवं तालाबों का कार्य अलग-अलग योजनाओं में होता रहा, लेकिन मूल तकनीक एवं साधन आगोर को भूलते गए।
हाल ही हुए एक अध्ययन के अनुसार आगोर के अभाव में दो-तिहाई टांके अनुपयोगी पड़े हैं। इसी तरह नाडी या तालाब के आगोरों की उपेक्षा के चलते नाडियां अपना पुराना स्वरूप और वैभव खोती जा रही हैं।
जल संकट से उबरने के लिए ‘आगोर’ पर सरकार, जनप्रतिनिधियों, जिला प्रशासन, स्वैच्छिक संगठनों, युवा संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों को गौर करने की जरूरत है। हमें फिर से इस व्यवस्था को जीवित करना होगा। अनुपयोगी टांकों के आगोर बनाने व नाडियों एवं तालाबों की आगोर की साफ-सफाई का काम होना चाहिए। वर्षाजल संचय के लिए सार्वजनिक भवनों के परिसर में बने टांकों को भवन की छत से जोडऩे के लिए अभियान चलाएं तो बहुत बड़ा योगदान जल संरक्षण के लिए हो सकेगा। आज टांके एवं आगोर की इस तकनीक को देश के शुष्क, अर्धशुष्क क्षेत्रों में ले जाने की सख्त जरूरत है।