व्यंग्य राही की कलम से
जिस तरह चिकने घड़े पर पानी की बूंद नहीं ठहरती वैसे ही बेशर्म इंसान को तंज या व्यंग्य के हजार शब्द भी शर्मिन्दा नहीं कर सकते। आजादी के बीस-पच्चीस साल बाद तक पक्ष-विपक्ष के नेता आलोचना में संतुलित शब्दावली का इस्तेमाल करते थे। उन्हें पता था कि राजनीति का ऊंट किसी भी दिन अपनी करवट बदल सकता है।
इसलिए हम आज किसी की धज्जियां उड़ाएंगे तो कल किस मुंह से उसका गुणगान करेंगे। शब्दों की यह पर्दादारी उन दिनों प्रचलित थी। इसका अर्थ यह नहीं कि पक्ष-विपक्ष संसद में या बाहर एक दूजे की ‘आरती’ नहीं उतारते थे। समाजवादी राममनोहर लोहिया पंडित नेहरू की जबरदस्त आलोचना करते थे। जयप्रकाश नारायण ने तो इंदिरा गांधी को सिंहासन से उतार कर सड़क पर ला दिया था। लेकिन व्यक्तिगत प्रहार किसी ने किसी पर नहीं किया।
आज की चर्चा करें तो लगता है जैसे सबने जुबान को बेकाबू घोड़ी बना लिया है। मोदी और नीतीश में इन दिनों ताजा-ताजा दोस्ती हुई है। दो बरस पहले बिहार के चुनावों में दोनों की एक दूजे के प्रति शब्दावली सुनें तो कसम से गली में भूंगड़ों की दुकान पर होने वाली लड़ाई की याद आ जाएगी। उत्तर प्रदेश में एक नेता जैसे ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में घुसी उसने कांग्रेस को इतना बुरा-भला कहा कि पूछो मत।
कल तक जो महागठबंधन में सत्ता के झूले पर पींगे बढ़ा रहे थे वे आज एक दूसरे पर गलाकाट शब्दों के अस्त्र-शस्त्र चला रहे हैं। कांग्रेस कौन सी कम है। जब वह सत्ता में थी तो यही खेल उनके यहां भी खूब चलता था। अब बाजी भाजपा के हाथ में है तो वह मजे ले रही है। इन के बीच शर्मिन्दा आम नागरिक हो रहे हैं। चिर शत्रुओं को कुर्सी के लिए गलबइयां डाले देख वह बौखलाया फिर रहा है। यहां हमें एक शायर का बेहतरीन शेर याद आ रहा है- दुश्मनी जम के करो, पर ये गुंजाइश रहे, जब कभी फिर दोस्त हों तो कोई शर्मिन्दा न हो। पर चिकने घड़े कभी शर्मिन्दा होते हैं क्या?
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