scriptकश्मीर पर फिर वही शोर | then the noise on kashmir | Patrika News

कश्मीर पर फिर वही शोर

Published: Jan 16, 2015 12:12:00 pm

Submitted by:

Super Admin

कश्मीर, नाम जेहन में आते ही एक सिहरन सी दौड़ जाती है। असल में हर किसी के दिलों-दिमाग …

कश्मीर, नाम जेहन में आते ही एक सिहरन सी दौड़ जाती है। असल में हर किसी के दिलों-दिमाग में “दो” कश्मीर बसते हैं। एक वह, जो दिखने में खूबसूरत और धरती का स्वर्ग है। जिसकी खुली वादियां, बर्फ की सफेद चादर और महकती फिजाएं, तराने छेड़ जाती हैं। लेकिन दूसरा चेहरा सामने आते ही सब सन्न रह जाते हैं। सड़कों पर कंटीले तार, बंदूक के साये में जीते लोग और सांसों तक पर पहरा! फौरन एक खुशनुमा अहसास खौफ में बदल जाता है। “नेचर ग्राउंड” किसी “बैटल ग्राउंड” सा लगने लगता है। लगातार घुसपैठ, जवाब देती भारतीय सेना और सेना पर सियासत। बरसों से यही आलम जारी है। पर क्या सिर्फ सेना हटने से बन जाएगी बात या वही रहेंगे हालात, इसी पर आज का स्पॉट लाइट…

अफसर करीम, सेवानिवृत मेजर जनरल
जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना की भूमिका को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। हाल ही एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित लेख में राज्य में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और घुसपैठ के खिलाफ लंबे समय से चल रहे ऑपरेशन में सेना की भूमिका को कम करने पर जोर दिया गया था। इसमें स्पष्ट किया गया कि कश्मीर में व्यावहारिक रूप से उग्रवाद मृतप्राय स्थिति में है, लेकिन सेना कश्मीर से एएफएसपीए (आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट) हटाने का विरोध करती रही है। लेखक का मानना है कि सेना चाहती है कि राज्य में उसकी गतिविधियों का विस्तार हो।

कश्मीर घाटी में कोर कमांडर रहे ले. जनरल सैयदअता हसनैन का इस मामले में तर्क है कि सुशासन की गैर मौजूदगी और ठोस राष्ट्रीय नीति के अभाव में सेना कश्मीर में धुरी का काम कर रही है। वे प्रदेश के शासनतंत्र में सेना को कोई जिम्मेदारी देने का सुझाव देते हुए सुरक्षा की दृष्टि से बड़ी तादाद में सेना के जवानों के वहां तैनात रहने को उचित ठहराते हैं।

कश्मीर में सैन्य कमांडर रहे ले. जनरल एचएस पनाग का विचार है कि जब सेना ने अपना मिशन पूरा कर लिया हो, तो आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था में उसकी भूमिका व कटौती पर समीक्षा होनी चाहिए। इसी तरह उत्तरी कमान के पूर्व मुखिया ले. जनरल रूस्तम नानावती के मुताबिक सेना को यह सोचना चाहिए कि विद्रोह निरोधक कार्रवाई पूरी होने के बाद वह अब क्या करे? उन्होंने एक किताब में बताया भी है कि कोई सरकार सुरक्षात्मक हालात एकदम सुधर जाने का दावा नहीं कर सकती।

उनके मुताबिक सेना की लगातार बराबर तैनाती और सैन्य कार्रवाई के संचालन में बदलाव न करना कई बार हंसी का पात्र बना देती है। इस बहस में कई और विशेषज्ञों के विचार भी सामने आए हैं। वजाहत हबीबुल्ला ने अपने लेख में कुछ अहम बिंदुओं को शामिल किया है। उनका कहना है कि जवानों की पुन:तैनाती में लोगों की यह भावना समझनी होगी कि सेना पेशेवर बल है और उसकी मौजूदगी कश्मीर में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए नहीं है।

आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में अपनी संवैधानिक आजादी अक्षुण रखने का पूरा अहसास हो। दूसरी ओर राज्य सरकार अपना जन सुरक्षा कानून,1982 को जारी रखने पर जोर दे रही है जो सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून से ज्यादा सख्त और व्यापक है। पूर्व सेना प्रमुख जनरल विज का विचार है कि सेना के लिए यह समय अपनी उपलब्घियों को आगे बढ़ाने का है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब आतंककारी और विद्रोही भारी पड़ रहे हों और स्थानीय लोगों के बड़े वर्ग का उन्हें समर्थन मिल रहा हो, तो सेना को विशेष शक्तियां मिलनी चाहिए। फिर भी सेना का काम यहीं तक सीमित है कि वह नागरिक प्रशासन की बहाली व राजनीतिक व्यवस्था कायम होते ही बैरकों में वापस लौट जाए। सरकार से शीर्ष स्तर पर ऎसे राजनीतिक और सामरिक दिशा-निर्देश जारी होने चाहिए कि सेना को यह जिम्मेदारी सीमित समय के लिए सौंपी गई है। लेकिन न तो भविष्य में और न ही वर्तमान में किसी सरकार ने इस तरह के दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इसलिए सैन्य बल अपनी सूझ-बूझ के मुताबिक देश की बेहतरी के लिए जुटे रहते हैं।

एक अन्य सेवानिवृत जनरल के अनुसार, सेवारत अधिकारी सेना के आयोजनों के दौरान दिए जाने वाले प्रधानमंत्री के संबोधनों पर गंभीरता से गौर करें। किसी औपचारिक सामरिक मार्गदर्शन के अभाव में इसे राजनीतिक दिशा-निर्देश के तौर पर ग्रहण किया जा सकता है। भारत में सामरिक मामलों, सुरक्षा की समीक्षा या रक्षा जैसे विषय पर किसी तरह के लिखित आदान-प्रदान की सार्वजनिक परम्परा नहीं रही है। इसका मतलब यह नहीं है कि सेना में सामरिक विचारों की कमी है। लेकिन गहन सामरिक मुद्दों पर राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव कायम है।

कश्मीर के मौजूदा माहौल में आतंककारी और आईएसआई स्थानीय जनता के एक वर्ग के समर्थन से अपनी हरकतें बढ़ा रहे हैं। जबकि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून का कवच पहने बगैर सेना अपना काम करने में सक्षम नहीं है।

वास्तव में किसी उद्देश्यपूर्ण राजनीतिक पहल के बगैर हमारी कश्मीर नीति स्थिर बनी हुई है। काफी तादाद में सुरक्षा बलों की स्थाई तैनाती से आम नागरिकों का जन-जीवन गड़बड़ा गया है। हम कश्मीर समस्या को केवल विद्रोह व अशांति के नजरिए से ही नहीं देख सकते। इसमें अन्य पहलुओं पर भी गौर करना होगा। शहरों में सुरक्षा बलों की भारी मौजूदगी जनता और जवानों में अविश्वास की दीवार खड़ी करती है। शायद इनकी तैनातगी का कोई और बेहतर सिस्टम सामने आए।

हालांकि कुछ समय के लिए सैन्य बलों का वहां मौजूद रहना गलत नहीं है, लेकिन वर्तमान हालात में इनकी लगभग स्थाई तैनातगी पर पुनर्विचार होना चाहिए। उनके काम करने के तौर-तरीके और आम नागरिकों के प्रति व्यवहार भी बदलना चाहिए। ऎसे उपाय ढूंढना सरकार की जिम्मेदारी है, जिससे सुरक्षा से भी समझौता न करना पड़े और आम लोगों के रोजमर्रा के कामकाज की मुश्किलें भी हल हो जाएं। शायद इसका जवाब राजनीतिक माहौल के बदलाव में निहित है। जिससे विरक्ति कम हो और पाक समर्थित आतंकवाद व उनके स्थानीय हमदर्दो का भी सफाया हो।

कंवल सिबल पूर्व विदेश सचिव
हमारी सेना कश्मीर में इस वक्त दो देशों का सामना कर रही है। पहला पाकिस्तान और दूसरा चीन। पाकिस्तानी घुसपैठिए अभी भी आए दिन कश्मीर और आस-पास के इलाकों में हमले कर रहे हैं। दूसरी ओर चीन ने पिछले कुछ वक्त में पाक अधिकृत कश्मीर में अपना वर्चस्व काफी बढ़ा लिया है। ऎसे में यह तर्क देना कि कश्मीर में सेना कम कर देनी चाहिए या सेना होनी ही नहीं चाहिए, सरासर गलत है। हमारे देश को सबसे ज्यादा बाहरी खतरा कश्मीर और अरूणाचल प्रदेश में है और वहां सुरक्षा स्थिति सेना के हाथ मेें रहना बेहद जरूरी है।

कश्मीर के भीतर हमारी नीति और पाकिस्तान के लिए हमारी नीति, यह दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं। कश्मीर में असल समस्या पाकिस्तान ने खड़ी की है। जब तक पाकिस्तान के आतंकी गुट हमारे खिलाफ कार्य करते रहेंगे, पंजाब (पाक) के जिहादी समूह हमला जारी रखेंगे, तब तक कश्मीर सुरक्षित नहीं रह सकता। इन हमलों को रोकने और कश्मीरियों की सुरक्षा के लिए सेना की जरूरत है। सेना के रहते ही पाकिस्तान का दखल खत्म हो पाएगा।

यह सही है कि पहले की तुलना में कश्मीर में अब आतंकवाद कम हो गया है। जान-माल की हानि भी कम हो गई है, लेकिन इसके चलते सेना को वहां से हटाना नासमझी होगी। कश्मीर में हमले कम होने के पीछे बड़ा कारण यह है कि पाकिस्तान की सेना पाक-तालिबान के खिलाफ अभी खुद फंसी हुई है। वह उसे काबू नहीं कर पा रही है। पाकिस्तान के पश्चिमी प्रांतों में पाक-तालिबान का डर बहुत बढ़ गया है। इसके चलते पाकिस्तानी सेना की इतनी क्षमता नहीं है कि वह दोतरफा लड़ाई लड़ सके।

पिछले दिनों पाकिस्तानी सेना को हमारी सेना की तरफ से भी कड़ा संदेश गया है। अब उनके मन में भय रहेगा कि अगर उन्होंने भारतीय सेना के साथ सीजफायर उल्लंघन किया, तो कड़ा जवाब मिलेगा। यानी अभी स्थिति भारत की मजबूत हुई है, लेकिन हमें आगे गंभीरता से कदम उठाने होंगे।

भले ही कश्मीर में आतंकवाद कम हो गया है, लेकिन पाकिस्तान की नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। इसलिए वहां हमारी सेना की भूमिका कम किया जाए या सेना को हटाया जाए, यह कदम फौरी तौर पर राजनीतिक जरूरतों को तो पूरा कर सकता है, लेकिन भविष्य में उसका नुकसान उठाना पड़ सकता है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी लगातार सेना को हटाने की मांग इसलिए करती रही हैं, क्योंकि उन्हें कश्मीर चरमपंथी समूहों का सामना करना पड़ता है। इसलिए वे सेना के खिलाफ नजरिया पेश करते हैं। ताकि जनता यह न सोचे कि कश्मीर में सब कुछ केंद्र सरकार चला रही है।

लेकिन राजनीतिक सहूलियत पाकिस्तान और उग्रवादी गुटों के हाथ मजबूत करती है। इसलिए हमें वस्तुनिष्ठ नजरिया अपनाना चाहिए। कश्मीर में अभी सबसे बड़ा कार्य सशस्त्र सैन्य बलों का ही है। वे ही वहां के नागरिकों को सुरक्षा दे रहे हैं। वे भी देशभक्त लोग हैं और उनकी अपने देश में गहरी निष्ठा है। राजनेता अपने हितों को लेकर इस तरह के सुरक्षा निर्णय न लें, तो कश्मीर के लिए बेहतर होगा।

दरअसल, यह बात बड़ी साफ है कि पाकिस्तान से कश्मीर के मुद्दे को हल करने की आशा रखना बेकार है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने तो आजकल कश्मीर पर ज्यादा शोर मचाना शुरू कर दिया है। वह तो अमरीका से भी मदद की गुहार लगा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र में उन्होंने जो भाषण दिया, वह भी काफी सख्त था। शरीफ को मालूम है कि कश्मीर का मसला आसानी से हल नहीं हो सकता, लेकिन वह पाकिस्तान में अपना समर्थन बढ़ाने के लिए ऎसी नीति पर चल रहे हैं।

ऎसे में भारत को कश्मीर पर बहुत सुदृढ़ नीति पर टिके रहने की जरूरत है। कश्मीर में सेना के रहने से कश्मीरी नागरिकों के हमसे दूर होने की बात पूरी तरह सही नहीं है। असल में वहां हम सभी लोगों का विश्वास तो नहीं जीत पाएंगे। हां, जहां तक कश्मीर के हिंदुस्तान के साथ रहने की बात है, तो कश्मीरी इससे इंकार नहीं करेंगे। वे हिंदुस्तान के साथ रहना चाहेंगे, लेकिन कुछ लोग अपने हित साधने के लिए ऎसी कोशिशें करते हैं कि कश्मीर को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बना रहे।

राजनीतिक बिरादरी के कुछ लोग कश्मीर को स्वायत्तता दिलाने की बात करते हैं, तो कुछ कश्मीरियों का विश्वास जीतने की बात कहकर अपनी राजनीति साधते रहते हैं।

उन्हें मालूम है कि सेना के बिना वहां सुरक्षा मुश्किल है। लेकिन वहां के राजनीतिक दल एक तबके और चरमपंथियों को साधने के लिए सेना को केंद्र में रखकर राजनीति की जाती रही है। असलियत सभी के सामने है कि सेना वहां जिस आतंकवाद को खत्म करने के लिए लगाई गई थी, वह मकसद अभी तक पूरा नहीं हो पाया है।

इसलिए सेना को हटाने या कश्मीर में उसकी तैनाती बरकरार रखने की समीक्षा की स्थिति अभी नहीं आई है। अभी भी कश्मीर में पाकिस्तान से आतंकी-घुसपैठिए हमले करते रहते हैं। वहां शांति कायम नहीं हो पाई है। ऎसे में सेना के हाथ कमजोर करना या उसे हटने के लिए कहना सरासर गलत कदम होगा। हां, अगर सेना को लगता हो कि उसने जिन इलाकों में स्थिति पर नियंत्रण कर लिया है और वहां आगे आतंकवाद के खिलाफ कठिनाई नहीं होगी तो वहां से वह हट सकती है।
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो