रिसर्जेन्ट राजस्थान के नाम पर राजस्थान में भी ऐसे सम्मेलनों का आयोजन हुआ। लेकिन अब तक के अनुभवों से साफ है कि निवेश की लंबी-चौड़ी घोषणाएं तो हुईं लेकिन जो एमओयू हुए, उनमें अधिकतर धरातल पर ही नहीं उतरे। देखा जाए तो इन्वेस्टर्स समिट जैसे आयोजन धनकुबेरों के मिलन कार्यक्रम होने लगे हैं। सत्ता में जो भी होता है वह यह संदेश देने की कोशिश में जुटता है कि कई नामी-गिरामी निवेशक उनके प्रयासों से ही राज्य में निवेश करने को आतुर हैं। सरकारें ये भी दावा करती हैं कि उनके यहां निवेश का अनुकूल माहौल है। लेकिन उद्योग जगत के लिए जिस तरह से लाल कालीन बिछाने का काम होता है उसके अनुरूप निवेश होता ही नहीं। इन आयोजनों में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। इतना निवेश भी नहीं आए तो कौन जिम्मेदार होगा? यह तय होना चाहिए।
किसी भी प्रदेश में निवेश होता है तो इसमें किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन जो नीतियां बनाई जाएं वे ऐसी नहीं होनी चाहिए जिससे एमओयू करने के बाद भी निवेशक कतराने लगा। राजस्थान में ही पिछली वसुंधरा राजे सरकार के वक्त वर्ष 2015 में 3.38 लाख करोड़ रुपए के 470 एमओयू विभिन्न विभागों की ओर से किए गए थे। राज्य सरकार का दावा है कि इनमें सिर्फ 11577 करोड़ रुपए के 72 निवेश प्रस्ताव ही क्रियान्वित हो पाए। दरअसल कोई भी उद्यमी तभी उद्योग लगाएगा जब उसको रिटर्न मिलेगा। सिंगल विंडो का प्रचार तो खूब होता है लेकिन निवेशकों को धक्के खाने पड़ते हैं।
भू-आवंटन, भू-उपयोग परिवर्तन, प्रदूषण नियंत्रण मंडल व वन विभाग की एनओसी आदि लेने में निवेशक को जिस कदर परेशान होना पड़ता है वह किसी से छिपा नहीं। दो साल पहले निवेश जुटाने में बेहतर प्रदर्शन वाले राज्यों के लिए केन्द्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने पुरस्कार योजना का भी एलान किया था। दरअसल किसी भी प्रदेश में निवेश का माहौल तब ही बन सकता है जब राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाई जाए। आने वाले दिनों में राज्यों में ऐसे निवेशक सम्मेलन और होंगे। पर बड़ा सवाल यह है कि महज दिखावे के लिए एमओयू करने वाले जिम्मेदारों के खिलाफ आखिर कार्रवाई क्यों नहीं होती?