रामगढ़ कैसे मर गया। तालाब अथवा बावड़ी नहीं था। जयपुर शहर को पानी पिलाने वाला 64 फुट भराव क्षमता का बांध था। मर गया। किसी को कानो-कान खबर नहीं लगी। भराव क्षेत्र में तेजी से अतिक्रमण हो गए। एनीकटों के लिए स्वीकृतियां बंटती चली गईं। जनता का धन जीवन के बजाए मौत बांटने में लगता चला गया। सब अपने-अपने गांव को बचाकर रामगढ़ और जयपुर को मारने पर उतारू हो गए। देखते ही देखते रामगढ़ सूख गया। एक सौ किलोमीटर की दूरी तक के कुएं सूख गए। छोटे बांधों की ‘सीर’ सूख गई। खेत उजड़ गए। प्रशासन दूरबीन लगाकर देखता रहा। उसकी तो कमाई के दिन शुरू हो गए थे। अतिक्रमणों की तो मानो ‘बहार’ आ गई थी। बांध में पानी के स्थान पर खेती होने लगी। निर्माण शुरू होने लगे। ताकि लोग शीघ्र ही भूल जाएं कि यहां रामगढ़ रहा करता था।
जैसे अकाल में गिद्ध मंडराते हैं। पूरे राज्य में रामगढ़ की तर्ज पर गतिविधियां बढ़ गईं। चाहे आनासागर हो, सांभर झील हो, कूकस अथवा कालाखो-नेवटा-आकेड़ा के बांध हों। एक ओर अतिक्रमण और दूसरी ओर शहरभर का गंदा पानी इन पर हावी हो गया। यह सारा कार्य बिना प्रशासन की ‘मूक स्वीकृति’ के संभव नहीं था, किन्तु देख लो, संभव हो गया। न कोई दरिन्दा जेल गया, न किसी को फांसी लगी। हां, हजारों मर गए। यह सरकारी मानसिकता के दोगलेपन का ही उदाहरण है।
सारा कार्य राज्य सरकार के नियंत्रण में है। सरकारें राजनीति करती रहती हैं। पूरा बजट और केन्द्र से आने वाला धन भी खा जाते हैं, माननीय हाईकोर्ट के आदेशों की भी लीपापोती होती रहती है। बांध में एक इंच पानी नहीं आया। पत्रिका के अभियान ‘मर गया रामगढ़’ पर आधारित सन् 2011 से यह मामला राजस्थान हाईकोर्ट में चल रहा है। कितने मर चुके होंगे, कितने अतिक्रमण बढ़ गए होंगे, फाइलें चल रही हैं। लोकतंत्र का विकास जानलेवा हो रहा है। किसी सरकार ने इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। न ही मृतकों (मानव एवं पशुधन) को शहीद माना। न वर्तमान सरकार कुछ पानी लाने को संकल्पवान् दिखाई दे रही है। अफसर तो बीसलपुर के ही राग अलापते हैं। उनके यहां रामगढ़ कभी का मानो दफन हो चुका।
कोर्ट ने जब रामगढ़ क्षेत्र की जानकारी मांगी तो बहाव क्षेत्र की जमीन का रेकॉर्ड जेडीए में उपलब्ध ही नहीं था। कुछ आंकड़े विरोधाभासी भी थे। अतिरिक्त मुख्य सचिव रोहित कुमार सिंह को कोर्ट द्वारा नोडल अधिकारी नियुक्त करना पड़ा था। बांधों की मिट्टी निकालने की चर्चा तो खो ही गई।
रामगढ़ के बाद तो कई प्राकृतिक जल स्रोतों के मामले न्यायालयों में पहुंच चुके हैं। बाण्डी, लूनी, जोजरी जैसी नदियों के मामलों में तो कोर्ट राज्य सरकार पर जुर्माना भी लगा चुकी है। प्रदेश की कृषि, हरियाली और पशुधन की हानि सबको अपनी-अपनी जेबों के आगे छोटी दिखाई पड़ रही है। सार्वजनिक वादे भी पानी के साथ सूखते जाते हैं। सूखे हुए कण्ठ किधर आसभरी टकटकी लगाए, वह रोशनी भी नहीं नजर आ रही। राजस्थान को देश का जलहीन क्षेत्र (औसत) कहा जा सकता है। हजारों-करोड़ रुपए जल के नाम पर जमींदोज हो चुके हैं। राजनीति चरम पर दिखाई जान पड़ती है।
मानसून सिर पर आने को है। लगता नहीं कि सरकार इन झीलों-बांधों को लबालब देखने के लिए लालायित है। इस दिशा में कहीं कोई कार्य होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। जिस हाईकोर्ट ने स्वप्रेरणा से प्रसंज्ञान लिया था, आठ वर्षों में कितना हिला पाया सरकारों को, वह भी सामने है। इससे कहीं अधिक कार्य तो जनता ने पत्रिका के ‘अमृतं जलम्’ कार्यक्रम में भागीदारी करके ही पूरा कर दिया। इस बार केन्द्र में भी जल विभाग का कार्य राजस्थान (पश्चिमी क्षेत्र) के गजेन्द्र सिंह शेखावत के नियंत्रण में आया है। पानी की समस्या और जल स्रोतों के अतिक्रमणों से वे भलीभांति परिचित भी हैं। रामगढ़ तो एक उदाहरण है, देश में हजारों की संख्या में ऐसे बांध-जलाशय हैं जो लोभी भूमाफिया और निष्क्रिय सरकारों के कारण मरते जा रहे हैं। लगता है कि अब तो जनता, विशेष रूप से नई पीढ़ी ही इन्हें बचा सकती है, क्योंकि उनके भविष्य का सवाल है। उम्मीद करनी चाहिए कि राज्य सरकार और केन्द्रीय जल विभाग राज्य को मानसून का लाभ उठाने का अवसर देंगे। युद्ध स्तर पर कार्य करके, कोर्ट के आदेशों की छाया में, आधुनिक तकनीक के सहारे सब कुछ किया जा सकता है। प्रश्न इच्छा शक्ति का है। कृषि और पशुधन ही हमारा सबसे बड़ा उद्योग है।