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एक देश, एक चुनाव: धुंधली तस्वीर

‘एक देश, एक चुनाव’ को लेकर सरकार की मंशा पर संदेह नहीं हो सकता। लेकिन उसे विपक्षी दलों की शंकाओं का समाधान भी करना होगा।

Jun 20, 2019 / 03:28 pm

dilip chaturvedi

one nation one election meet 2019

one nation one election meet 2019

अपने पिछले कार्यकाल में भी ‘एक देश, एक चुनाव’ की वकालत करने वाले पीएम नरेन्द्र मोदी की ओर से दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही इस मुद्दे पर चर्चा के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक की तस्वीर धुंधली रही। हालांकि इसकी संभावना तलाशने के लिए सरकार ने जल्द ही एक कमेटी गठित करने की बात कही है। लेकिन चिंताजनक पक्ष ये भी है कि कई प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस बैठक से किनारा किए रखा। हैरत की बात यह है कि बैठक से दूरी बनाने वालों में वे राजनीतिक दल भी शामिल थे, जिन्होंने विधि आयोग के इस सुझाव का स्वागत किया था।

चुनाव आयोग, नीति आयोग और संविधान समीक्षा आयोग तक इसके पक्ष में अपनी राय दे चुके हैं। बैठक में विपक्ष के कई नेताओं की गैर-मौजूदगी से यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या विपक्षी दलों ने ‘एक देश, एक चुनाव’ की सरकारी मंशा को लेकर जो सवाल उठाए हैं, वे वाजिब हैं? या फिर यह विपक्षी दल सिर्फ विरोध के लिए ही इस विचार पर आपत्ति जता रहे हैं।

लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि ऐसा हुआ तो बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी। देश हर साल चुनाव के मोड में रहता है। इससे नीतिगत फैसले लेने में सरकारों को परेशानी होती है। विकास कार्यक्रम भी प्रभावित होते हैं। बड़ी बात यह भी कि बार-बार होने वाले भारी चुनावी खर्च में कमी आएगी। सरकारी खजाने पर बोझ तो कम पड़ेगा ही, चुनावों में कालेधन और भ्रष्ट आचरण के इस्तेमाल पर भी रोक लगेगी।

हमारे संविधान मेंं लोकसभा व विधानसभा के चुनाव प्रत्येक पांच साल में कराने का जिक्र तो है लेकिन ये दोनों चुनाव एक साथ कराए जाने का उल्लेख नहीं। वैसे ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार कोई नया नहीं है। पहले भी देश में चार बार लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो चुके हैं। चुनाव सुधारों को लेकर सुधारों की दिशा में ‘एक देश, एक चुनाव’ के साथ-साथ और भी कई मुद्दे हैं।

राजनीति में अपराधियों का प्रवेश कम नहीं हो रहा। धनबल का चुनावों में इस्तेमाल छिपा नहीं। ‘एक देश एक चुनाव’ को लेकर सरकार की मंशा पर कोई संदेह नहीं हो सकता लेकिन विपक्षी दलों की ओर से उठाई गई शंकाओं का समाधान करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है।

अमरीका जैसे दुनिया के दूसरे देशों में भी एक साथ चुनाव बिना किसी बाधा के होते हैं। और, फिर न केवल लोकसभा और विधानसभा बल्कि शहरी निकायों व पंचायत राज संस्थाओं के चुनावों को भी एक सााथ कराए जाने पर विचार होना चाहिए। आखिर समय व धन की बर्बादी तो सभी स्तर के चुनावों में होती है। आचार संहिता की अड़चन तो सबके साथ है ही। ऐसे प्रयासों की क्रियान्विति सबके साथ से ही मुमकिन है।

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