जम्मू-कश्मीर की सियासत को अगर बरमूडा ट्राइएंगल कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यहां हर पार्टी आकर तिकोने में फंस जाती है। इस प्रदेश में कोई ऐसा मुद्दा ही नहीं है जो कि पूरे प्रदेश को प्रभावित कर सके। सियासत की तासीर ही कुछ ऐसी है कि अगर कोई पार्टी जम्मू को केंद्र में रखती है तो कश्मीर हार जाती है। कश्मीर को केंद्र में रखती है तो जम्मू हार जाती है और लद्दाख को नजरअंदाज करती है तो गणित बिगड़ जाता है।
लोकसभा 2014 के परिणाम भी यही कहते नजर आते हैं। जम्मू-लद्दाख में तीन सीटें जीतने वाली भाजपा, कश्मीर में एक भी सीट नहीं जीत पाई और कश्मीर में तीन सीट जीतने वाली पीडीपी एक सीट भी बाहर नहीं जीत पाई।
लोकसभा 2014 के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव की रस्साकशी शुरू हो गई। भाजपा ने जहां एक बार फिर से राष्ट्रीय मुद्दों सहित जम्मू और हिंदुत्व के मुद्दे के साथ विकास के नारे का दांव खेला, वहीं पीडीपी ने कश्मीर घाटी में नारा दिया कि हमें टैंक नहीं टॉक चाहिए। भाजपा को बाहरी बताया।
एनसी और कांग्रेस ने अपनी सरकार में हुए कार्यों का हवाला देकर चुनाव लड़ा। परिणाम आया तो भाजपा जम्मू में 25 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी बनी, वहीं कश्मीर में 28 सीटें लेकर पीडीपी आगे रही। कांग्रेस को 12 और एनसी को 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
राज्य में कोई भी पार्टी बहुमत में नहीं थी, जिसके चलते 2015 के जनवरी और फरवरी माह में राज्यपाल शासन रहा। दूसरी तरफ साझा सरकार बनाने के लिए श्रीनगर से दिल्ली तक बैठकें हुईं और फिर भाजपा और पीडीपी ने अपने-अपने एजेंडे दरकिनार करते हुए साझा सरकार बनाने की पेशकश की। 1 मार्च को मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और राज्य सरकार चलने लगी। साल के अंत में मुख्यमंत्री बीमार रहने लगे और ज्यादातर समय में वह एम्स में ही भर्ती रहे।
अभी नई नवेली सरकार कार्यों को अंजाम देना सीख ही रही थी कि एक बार फिर से आघात हुआ और 7 जनवरी 2016 को मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत हो गई और राज्य में एक बार फिर से राज्यपाल शासन लग गया। अब पीडीपी के खेमे में पार्टी नेतृत्व को लेकर उहापोह की स्थिति थी, तो दूसरी तरफ महबूबा मुफ्ती भाजपा के साथ सरकार बनाने में सहज महसूस नहीं कर रही थी।
इसके कारण पार्टी में एक धड़ा बागवत करने पर उतारू हो गया था। इसे देखते हुए महबूबा मुफ्ती ने एक बार फिर से गठबंधन सरकार की हामी भर दी और 4 अप्रेल को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
अभी दो महीने भी नहीं हुए थे कि सैन्य बलों ने एक एनकाउंटर में 8 जुलाई को आतंकी बुरहान वानी को मार गिराया और इसके बाद पूरे प्रदेश में कानून व्यवस्था का संकट उत्पन्न हो गया। घाटी में कर्फ्यू लगा दिया गया और पूरा प्रशासनिक और राजनीतिक अमला ‘मूव’ के कारण जम्मू आ गया। सेना का ऑपरेशन ऑल आउट (ओएओ) जारी रहा।
सैन्य बलों ने ताबड़तोड़ कार्रवाई करते हुए इस साल 213 आतंकी मार गिराए। भाजपा और पीडीपी दोनों पार्टियां बेचैन शांति के बीच सरकार चलाती रहीं, पर शांति आने वाले राजनीतिक तूफान का संकेत दे रही थी। भाजपा ने अपने मंत्रियों में कुछ बदलाव भी किए लेकिन बात नहीं बनी।
बेमेल गठजोड़ की दोनों पार्टियों को अपने-अपने एजेंडे से पीछे हटने में घाटा नजर आ रहा था। ऐसे माहौल में गुर्जर समुदाय की एक बच्ची से रेप के मामले ने राज्य की सियासत को हिला कर रख दिया। पीडीपी को जहां इस मामले में सही कार्रवाई न करने को लेकर घेरा गया, वहीं भाजपा की चुप्पी ने उसे जम्मू की राजनीति में किनारे खड़ा कर दिया।
साझा सरकार की जबरदस्त किरकिरी हुई। इसी बीच तीन अंगरक्षकों के साथ एक बड़े अखबार के संपादक शुजात बुखारी की हत्या हो गई। इसके साथ सरकार के विघटन का दौर शुरू हो गया और 19 जून 2018 को सरकार गिर गई। राज्य में राज्यपाल शासन लागू कर दिया गया। इसके बाद सरकार बनाने के लिए हुए सियासी ड्रामे में जहां धुर विरोधी एनसी और पीडीपी एक होते दिखे, वहीं कांग्रेस ने भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं की। यह अलग बात है कि इस ड्रामे के बीच विधानसभा भंग कर दी गई।
आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियां अब बिसात बिछाने में लगी हैं। समीकरण बदल चुके हैं फिर चाहे बात जम्मू की हो या फिर कश्मीर घाटी की। पीडीपी के पास जहां अब मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसा जन स्वीकार्य नेता नहीं है, तो वहीं उस पर ऐसी पार्टी के साथ सरकार चलाने की तोहमत है जिसे उसने समेटने का वादा किया था। 2016 के उपचुनाव में नेशनल कांफ्रेंस की जीत इस का बड़ा संकेत था कि भाजपा-पीडीपी गठबंधन को घाटी में किस प्रकार से लिया गया।
अब बात जम्मू और लद्दाख की। लद्दाख में भाजपा बहुत कुछ नहीं कर पाई है। कांग्रेस की स्थिति यहां बेहतर है। जम्मू की बात करें तो भाजपा और आरएसएस के अनुषांगिक संगठनों ने पैठ तो बनाई है, लेकिन कठुआ कांड में भाजपा की चुप्पी आने वाले लोकसभा चुनाव में उसे भारी पड़ सकती है।
गुलाम नबी आजाद की छवि का फायदा इस क्षेत्र में कांग्रेस को हो सकता है और एनसी भी घाटी के साथ जम्मू में पैठ बढ़ाने में लगी है। सारी राजनीतिक उठापटक के बीच इस बार सबसे ज्यादा फायदे में एनसी और कांग्रेस नजर आ रही हैं लेकिन कश्मीर पर फिर वही कहावत लागू होती है कि यहां का मौसम, हालात और सियासत कब बदल जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता है।
राज्य की सत्ता के समीकरणों में आए कई बदलाव लद्दाख से भाजपा प्रत्याशी थुपस्तान छेवांग की जीत लोकसभा चुनाव में सबसे कम अंतर की जीत रही। वे मात्र 36 वोटों के अंतर से जीते। 2014 के चुनाव में भाजपा ने अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर 3 सीटें जीतीं। लद्दाख से भाजपा ने पहली बार जीत दर्ज की। नेशनल कांफ्रेंस जम्मू-कश्मीर में पहली बार शून्य पर सिमटी। पार्टी का कोई प्रत्याशी नहीं जीत पाया। कांग्रेस अपना खाता नहीं खोल पाई। 1999 के लोकसभा चुनाव के बाद 2014 में ऐसी स्थिति बनी।