इस बार चुनाव कम, युद्ध अधिक हुआ। दलों में स्पर्धा नहीं थी, सौहार्द का भाव नहीं था, वाणी में माटी की सुगंध नहीं थी। कटुता थी, द्वेष था, शत्रुता थी। नजारा भारत-पाक युद्ध से भी बदतर था। कभी चुनाव देश की एकता और अखण्डता के नाम पर होते थे। इस बार चुनाव पूर्व ही देश खण्डित था, मूल्य और मर्यादाहीन था, असहिष्णु था। जिनके विकास के लिए चुनाव हुए उनके दु:ख-सुख की चर्चा तक नहीं और गिरावट इतनी कि, पुराने मामले भी खोद निकाले गए। धर्म का स्थान हिंसा ने ले लिया। साम्प्रदायिकता के आइने में वर्तमान और भविष्य दोनों देखे जा सकते हैं। धनबल, अहंकार, प्रतिशोध, झूठ सब कुछ चरम पर देखे गए। मीडिया-चुनाव आयोग पहली बार इतने बदनाम हुए कि इवीएम मशीनों की शिकायतें छोटी पड़ गईं। राजनीति का एक नया दलदल तैयार हो गया।
मतदाता ने ये सब देखा। काफी कुछ पिछले 70 वर्षों में देख भी चुका है। हां, शत्रुता का ऐसा चरम और बदले की भावना, जो लोकतंत्र में नहीं दिखाई देनी चाहिए, इस बार लोकतंत्र को नंगा कर गई। विपक्षी दलों के नाम पर जो आरोप एवं आक्षेप लगे, वे भी पिछले पांच सालों में उपस्थित थे। सब देख रहे थे, किन्तु मौन थे। तब किसी तरह की चर्चा या कार्रवाई नहीं हुई। न बांग्लादेशी लौटे, न ही कश्मीरी पण्डित घर पहुंचे।
चुनाव अभियान कुछ अलग तरह का भी था। इस बार प्रचारकों की भूमिका भी गौण रही। कांग्रेस में तो मात्र राहुल गांधी ही बचे थे। चुनाव के अन्त तक पहुंचते-पहुंचते सभी धराशायी हो गए। बस, दो ही बचे-एक नरेन्द्र मोदी और दूसरे राहुल गांधी। मूल में चुनाव भी दलों से हटकर दो व्यक्ति-विशेष के बीच ही आकर ठहर गया। लोकतंत्र लुप्त हो गया।
परिणाम जो भी होंगे, अपनी जगह होंगे। प्रश्न दलों की देश-व्यापी भूमिका का है। क्या चुनाव अभियान में इस प्रकार का विवेक सामने आया? क्या मतदाता इस मुद्दे पर गंभीर दिखाई दिया कि, उसके देश का भविष्य कैसा होना चाहिए अथवा उसने अपनी आंखों पर चश्मा जातिवाद का ही चढ़ाए रखा! देश की देश जाने। जाति के नाम पर अपराधी भी चलेगा और निकम्मा भी। आरक्षण ने जातिवाद को एक नए देश के रूप में खड़ा कर दिया। इस बार के चुनाव प्रचार ने यह सिद्ध कर दिया कि देश में कभी एकता और अखण्डता दिखाई नहीं पड़ेगी। इस त्रासदी के लिए किसी की आंख में एक आंसू भी न दिखेगा। चुनाव प्रचार में लोकतंत्र के शरीर में अस्सी घाव हो गए, जो राणा सांगा की यादें ताजा कर गए। बहुमत किसी को भी मिले, चुनाव में तो राजनीतिक दल नैतिकता की दृष्टि से हारे ही हैं। लोकतंत्र फिर कैसे जीत सकता है? देश हारा ही है। प्रश्न यही है कि अगले चुनाव तक ये घाव भर पाएंगे अथवा हरे ही रहेंगे? मरहम-पट्टी युवा हाथों में है।
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