यदि ऐसा हो पाता तो रोमानिया के निकोलाई, इराक के सद्दाम हुसैन, लिबिया के कर्नल गद्दाफी और यूगांडा के इदी अमीन की कुर्सी नहीं जाती। एक बार चुन लिया जाना भी कार्यकाल पूरा करने की गारंटी नहीं है। ब्रिटेन का उदाहरण है जहां ब्रेग्जिट पर टेरीजा कों कुर्सी छोडऩी पड़ी और बोरिस जानसन की कुर्सी भी अधर झूल में हैं। जनता का मानस जब बदल जाए वह तख्ता पलट देती है। और अच्छा काम करों तो वह देश की राजधानी तक का नाम नेता के नाम पर बदल देती है। जैसा कजाकिस्तान में नूर सुल्तान।
राजस्थान भी गवाह है-जब वसुन्धरा सरकार ‘काला कानून’ लेकर आई, तब जनता का प्रतिरोध चरम पर पहुंच गया। सत्ता का नशा चूर-चूर हो गया। आज का जागरूक नागरिक अपनी आजादी नहीं खोना चाहता। अधिकारों के लिए लडऩे का जज्बा सबको एक कर देता है। इसका ताजा और बड़ा उदाहरण हांगकांग का आन्दोलन है। वहां के चीन समर्थक मुख्य कार्यकारी अधिकारी कैरीलेम ने अप्रेल २०१९ में ‘प्रत्यर्पण बिल’ पेश किया। इस बिल के तहत किसी भी आपराधिक मामले की जांच के लिए अभियुक्तों को चीन को सौंपने का प्रावधान था। इसके विरोध में जन आन्दोलन शुरू हो गया। हांलाकि शुरुआती विरोध के बाद कैरीलेम ने इस बिल पर रोक लगा दी थी, किन्तु जनता इसकी पूरी वापसी मांग रही थी। उसको डर था कि यदि बिल कानून बन गया तो चीन की सरकार इसे अपने विरोधियों के खिलाफ उपयोग में लेगी। यह काला कानून बन जाएगा।
हांगकांग की स्थिति कुछ भिन्न सी है। कभी यह चीन का अंग था। सन् 1840 के अफीम युद्ध में चीन की हार के बाद यह इंग्लैण्ड के कब्जे में चला गया था। सन् 1898 में हुए समझौते के आधार पर सन् 1997 में इंग्लैण्ड ने कुछ शर्तों के साथ वापिस चीन को सौंप दिया। इनमें अगले ५० वर्षों तक विदेश और रक्षा मामलों के अलावा हांगकांग को पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक स्वतत्रंता दी गई थी। इस कारण वहां अपनी कानून व्यवस्था, प्रशासनिक क्षेत्र, राजनीतिक दल तथा बोलने की आजादी उपलब्ध थी। इस बीच चीन में राष्ट्रपति का कार्यकाल जीवन भर रहने का कानून बन गया। वैसे भी जनता के प्रति संवेदनहीनता की छवि तो चीन के सत्ताधीशों की विश्व में बनी हुई ही है। तब आशंकाएं प्रबल क्योंं न हो। वैसे भी चीन ने आन्दोलन को दबाने के प्रयास कम नहीं किए। सेना भेजना, सीधा सख्ती से निपटना, लाठियां, आंसू गैस, रबर की गोलियां, रंगीन पानी से पहचान कर पिटाई आदि कई रास्ते अपनाएं, लेकिन आन्दोलनकारी झुके नहीं। साथ ही पूरा आन्दोलन अनुशासनात्मक स्वरूप लिए था। कहीं आगजनी और तोडफ़ोड़ का नजारा नहीं था। कार्य का पूरा टाईम-टेबल उपलब्ध था। कहां-कहां आन्दोलन होगा, उसके स्थान निर्धारित थे। विशेष रूप से पुलिस मुख्यालय, हवाई अड्डा, संसद भवन और कैरीलेम का निवास घेरे गए। जो लोग आन्दोलन से दूर रहना चाहते हैं, वे अपना कार्य करते रहें अथवा दूर से देखते रहे। पुलिस उन्हें कुछ नहीं कहेगी।
अधिकारों की रक्षा के लिए इस क्षेत्र का अपना संविधान भी है। इस ‘बेसिक लॉ’ के तहत सार्वभौमिक मताधिकार के साथ लोकतांत्रिक ढंग से मुख्य कार्यकारी का चुनाव होता है। 1200 सदस्यों की समिति में अभी चीनी समर्थक अधिक हैं। मूल में यही आन्दोलन का लक्ष्य है। सन् 2014 में भी अपने नेता को चुनने की आजादी का आन्दोलन चलाया गया था। चीन तैयार नहीं हुआ तथा कुछ मुद्दों पर समझौता होकर रह गया था। इसीलिए आज विश्वास का बड़ा संकट है।
दूसरी और चीन आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। अमरीकी चेतावनी और आयात शुल्क की बढ़ोतरी ने ट्रेड वार का दृश्य उपस्थित कर दिया हंै। आन्दोलन और आन्दोलनकारियों के साथ हो रही सख्ती ने भी हांगकांग में नकारात्मक वातावरण बना दिया है। विशेष रूप से खुदरा व्यापार पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। पर्यटकों की संख्या घट गई है। ज्वैलरी और रंगीन रत्नों की मांग पर असर पड़ा है। होटल व्यवसाय पर भी संकट छा रहा है। चीनी मुद्रा भी संघर्ष कर रही है। हांगकांग ने पिछले वर्षों में विशेष विकास की गति तय करके चीन को सहारा दिया है। विदेशी निवेश भी आज हांगकांग के नाम से ही आता है। यहां की मुद्रा का भी विश्व में विशेष स्थान है। ऐसे में यहां का आन्दोलन चीनी अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका दे सकता है।
अभी संघर्ष का एक बड़ा दौर बाकी है जब सन् 2047 में हांगकांग की 50 वर्षीय स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी। तब क्या हांगकांग चीन का एक प्रान्त बन जाएगा अथवा हर व्यक्ति हरी सिंह-भगत सिंह बनने को तैयार रहेगा। भविष्य इसी बात पर निर्भर करेगा कि नागरिक अधिकारों के लिए ‘हम और हमारी सन्तानें’ किस हद तक संघर्ष के लिए तैयार हैं। एक कहावत है कि ‘आप मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता’