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मरो तो मां के लिए

Published: Sep 15, 2017 09:58:57 am

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Gulab Kothari

मेरे देश ने शब्द को ब्रह्म कहा है। क्या कोई भौतिकवादी अथवा अंग्रेजीदां मनीषी इस मर्म को समझा सकता है?

gulab kothari

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मुम्बई से आया तो आज के पत्रिका के मुखपृष्ठ पर ‘हिन्दी दिवस’ पर सामग्री पढ़ी। पेट के साथ चिपकी और मूल्यों से अनभिज्ञ अंग्रेजीदां पीढ़ी कैसे-कैसे सवाल उठा रही है, हिन्दी के विरोध में! विज्ञान की पढ़ाई कैसे संभव है हिन्दी में? रूस और जर्मनी जैसे देशों में जाकर देख लें। भारत से कितने लोग रूस में डॉक्टरी पढक़र आ रहे है? जर्मनी में संस्कृत के विद्वान जो कर रहे हैं, हमारे संस्कृत के आचार्य नहीं कर पा रहे। भाषा केवल माध्यम है ज्ञान अर्जित करने का। कोई अंग्रेजी दां माहौल की चर्चा में व्यस्त है, तो कोई इसे आजीविका से जोड़ रहा है। किसी को दुनिया से जुडऩे की चिन्ता है। माटी के इन सपूतों के सहारे ही भारतीय संस्कृति पुष्पित और पल्लवित हो रही है।
मेरे देश ने शब्द को ब्रह्म कहा है। क्या कोई भौतिकवादी अथवा अंग्रेजीदां मनीषी इस मर्म को समझा सकता है? क्या भाषा का उपयोग पेट भरना है या स्टाइल मारना है? क्या मानव जीवन का उद्देश्य मात्र पेट भरना ही है? तब तो हर प्राणी को अंग्रेजी सीख लेनी चाहिए। अरे, यह अंग्रेजी ही है, जिसने जीवन से मानवीय मूल्य छीन लिए हैं। अंग्रेजीदां व्यक्ति, अंग्रेजों की तरह, आज भी आम भारतीय को दोयम दर्जे का ही मानता है। हमारे अफसर, चाहे किसी भी शाखा के हों, इसका जीता जागता प्रमाण हैं। इस देश का दुर्भाग्य है कि इन अधिकारियों का प्रशिक्षण आज भी अंग्रेजी भाषा में होता है। इनको आप आम आदमी से जुड़ा हुआ कभी नहीं पाएंगे। इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि ये लोग सोचते ही अंग्रेजी में हैं, जहां इस देश की संस्कृति-परम्पराएं या जीवनशैली चर्चा में ही नहीं आती। अत: देश की नीतियों में संस्कृति की छाया तक दिखाई नहीं देती।
यही हाल अंग्रेजी मीडिया का भी है जो सदा सत्ताधीशों के इर्द-गिर्द तो रहता है, किन्तु जीवन मूल्यों और दर्शन की बात नहीं करता। अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में भी भारतीय दर्शन और जीवन का अभाव दिखाई देता है। विडम्बना यही है कि इनकी सलाह से ही शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी नीतियां बनती हैं, जो कि विदेशों की नकल पर आधारित होती हैं। भारतीय चिन्तन उस स्तर से हिन्दी के साथ ही सिमट गया। आज जिस प्रकार समलैंगिकता तथा अन्य मर्यादाहीन जीवनशैली पर आधारित कानून बनने लगे, उनका जो प्रभाव देशवासियों की मानसिकता पर पड़ा या जो कुछ प्रतिक्रिया देश में हुई, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। अंग्रेजी शिक्षा ने देश का सारा पारिवारिक ढांचा उजाड़ दिया। व्यक्ति को एकल जीवन में फंसाकर समाज व्यवस्था को तार-तार कर दिया।
क्या हिन्दी को भाषा मानने से देश पीछे चला जाएगा? क्या बेरोजगारी आज से भी ज्यादा हो जाएगी? क्या कारखाने बंद हो जाएंगे या बीपीएल की संख्या बढ़ जाएगी? सच बात तो यह है कि देश को देखना और समझना है तो हिन्दी ही माध्यम है। सभी प्रांतीय भाषाओं की स्थिति अपने-अपने प्रदेश में मातृभाषा की श्रेणी में आती है। अंग्रेजी में देश दिखाई ही नहीं देता। पिछले ७० सालों का अनुभव कहता है कि अभी तक अंग्रेजी ही देश को लूट रही है। अंग्रेजीदां लोग- लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ आज भी अंग्रेजी से बाहर नहीं निकले। इसका अर्थ है कि उन्होंने अंग्रेजी को भाषा की तरह कामकाज का माध्यम नहीं माना, बल्कि जीवन में एक सभ्यता के रूप में मानसिकता को आवरित कर लिया। इनमें से कितने बचे हैं जो देश के पुरातन साहित्य-वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् आदि… के ज्ञान के प्रति गम्भीर हैं। क्यों आज भी गीता विश्व में चर्चा और शोध का विषय बना हुआ है? अंग्रेजी के कारण? अथवा उस ज्ञान के कारण जो कि अंग्रेजी में भी उपलब्ध नहीं है?
मेरा देशवासियों से अनुरोध है कि ज्ञान को मात्र पेट भरने का साधन न मानें, भाषा को जीवनशैली से न जोड़ें और मातृभाषा की शक्ति को विकासवाद या वैश्वीकरण के नाम से तिलांजलि देने का प्रयास न करें। आप किसी के भी काम आने लायक नहीं रहेंगे। अपनी चिन्ता और सुरक्षा के प्रश्नों से कभी उबर भी नहीं पाएंगे। हिन्दी की वर्णमाला में जो अभिव्यक्ति है, तथा जो मंत्र शक्ति है, किसी अन्य भाषा में, कम से कम दैनिक उपयोग में, तो नहीं है। शब्द ब्रह्म की चर्चा बेवजह नहीं है। जीवन की कीमत खा-पीकर मर जाने में नहीं है। हम पिछले जन्म का आज खा रहे हैं, इस जन्म का आगे जन्म-जन्मों में भी खाते रहेंगे। जीवन का यह शाश्वत सत्य यदि कहीं है तो हिन्दी में है। संस्कृत का बोझ भी आज हिन्दी ही उठा रही है। देश की जड़ों को फिर से हरा करने की शक्ति हिन्दी में ही है। अंग्रेजी तो जड़ें सुखाती आ रही है। अंग्रेजी आम खाना सिखाती है। हिन्दी जमीन में गढक़र पेड़ बनना सिखाती है। आम कोई खाए-छाया कोई भोगे!
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