जिंदगी का सीमित दायरा भी एक क्रिकेट- मैदान सा ही है, जहाँ हमारे नाम की एक व्यक्तिगत पिच है! उसमें अपने हिस्से की भागीदारी करते हुए सामने बॉलर को असर नही पड़ता कि आप मंजे हुए सचिन है या कोई नौसिखिया खिलाड़ी! फ़िर हम यह कैसे भूल सकते हैं कि कभी अपने शुरुआती दौर में किशोर सचिन को भी पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की तेज रफ़्तार गेंदों का सामान करते हुए नाक पर तेज़ चोट लगी थी, फर्स्ट-एड लेने के बाद पिच पर बने रहने का उस मासूम दिखने वाले खिलाड़ी का अपना हौसला था! हमको भी अपने हिस्सें में आई असीमित बॉल खेलनी ही हैं, जो समय के साथ आपको अनुभवी व परिपक्व बनाता चला जाता है, घाघ या संवेदनशील बनना आपकी आत्मा का फ़ैसला होता है,
हालाँकि अब हम आत्मा को भी अनसुना करके मैच-फिक्सिंग तक करने लगे हैं! जीवन की पिच पर भी हमें गेंद पर नजर टिकाए रखने की कोशिशों की वक़्ती ज़रूरत होती है वरना क्लीन-बोल्ड, एलबीडब्लू, रन-आउट व बाउंड्री पर कैच होने के मौके तो ख़ूब लपके जाते रहते हैं…! अब तो स्लेजिंग उर्फ लामबंदी भी पिच में बिखरी हुई एक रहस्यमयी भाव-भंगिमा है! हमें जिंदगी भी इसी जन्म की ही याद रहती है, वह भी गिनती की मिली हुई साँसों के चलने तक ही…! पुनर्जन्म उर्फ थर्ड अंपायर के फ़ैसले के बारे में सोचकर यह जीवन भी क्यों त्रास से भर देना, यह भी तो हो सकता है आप महज़ एक ख़्वाबीदा ही साबित हों! क्यों न गेंद को फुटबॉल बनाने के लिये त्राटक ध्यान जैसा कुछ सहज अभ्यास करने के कुछ प्रयास कर लें! भीड़ का हिस्सा बनकर भी,मात्र भीड़ न बनें!
– मंजुला बिष्ट