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हिमाचल प्रदेशः सरकार ने कहा बंदर मारो इनाम मिलेगा, लोगों ने खड़े किए हाथ

बंदरों का आतंक देखते हुए इन्हें मारने को वैध घोषित कर दिया गया है। लेकिन फिर भी किसान परेेशान हैं क्योंकि वे बंदरों के आतंक से बचने के लिए उनकी जान नहीं लेना चाहते।

नई दिल्लीSep 13, 2018 / 04:24 pm

अमित कुमार बाजपेयी

Killing monkey

हिमाचल प्रदेशः खेती बचाने के लिए बंदर मारना वैध, किसान फिर भी परेशान

शिमला। हिमाचल प्रदेश में किसानों के सामने बंदर बड़ी परेशानी बन गए हैं। बंदरों के आतंक से खेती करने में समस्या आने लगी है और कई किसानों नेे फैसला ले लिया है कि वे खेती नहीं करेंगे। इस बीच बंदरों का आतंक देखते हुए इन्हें मारने को वैध घोषित कर दिया गया है। लेकिन फिर भी किसान परेेशान हैं क्योंकि वे बंदरों के आतंक से बचने के लिए उनकी जान नहीं लेना चाहते।
एक प्रमुख मीडिया की रिपोर्ट में बताया गया है कि राजधानी शिमला के अलावा प्रदेश के कुल 75 तहसीलों और 34 उप तहसीलों मेें बंदरों को वर्मिन श्रेणी में रखा गया है। वर्मिन श्रेणी यानी जानवरों का वो वर्ग जो संपत्ति को नुकसान पहुंचाता हो, जिनसे बीमारी फैलने का खतरा हो या वो मानव जीवन के लिए ही खतरा बन जाए। वर्ष 2016 में इसकी घोषणा की गई थी। अभी इस साल के अंत तक बंदरों को ही वर्मिन श्रेणी में रखा गया है।
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वर्मिन श्रेणी के तहत किसानों के पास बंदरों को मारने की अनुमति है। सितंबर 2016 में तत्कालीन वन मंत्री ठाकुर सिंह भारमौरी ने बंदरों को मारने पर किसानों को प्रति बंदर 500 रुपये का इनाम देने की घोषणा की थी। जबकि नसबंदी के लिए बंदर पकड़ने के लिए 700 रुपये देने की घोषणा की गई थी।
Monkey
फाइल फोटो IMAGE CREDIT: फाइल फोटो
हालांकि, सरकार की बंदरों को मारने के एवज में इनाम दिए जाने की घोषणा के बावजूद लोगों ने एक भी बंदर को नहीं मारा। शिमला नगर निगम की मेयर कुसुम सदरेट के मुताबिक हिंदू धर्म में बंदर को भगवान हनुमान का स्वरूप माना जाता है। लोग धार्मिक होते हैं और बंदरों की सेवा करके पुण्य कमाना चाहते हैं। बंदरों की संख्या में कमी न आने का यह भी एक प्रमुख कारण है। रिपोर्ट के मुताबिक अभी तक बंदरों को मारने के केवल 5 मामले ही सामने आए हैं।
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वहीं, हिमाचल प्रदेश के मुख्य अरण्यापाल डॉ. रमेश चंद कंग ने माना कि शहरों में ठोस कचरे का सही ढंग से निपटान न होने के चलते कूड़ेदानों के अगल-बगल बंदरों को खाना आसानी से मिल जाता है। बंदर अब जंगल छोड़कर शहरों में आकर बस गए हैं। क्योंकि ये हमेशा 20-25 बंदरों के झुंड में ही चलते हैं इसलिए इनकी दहशत बनी रहती है।
वर्ष 2014 की कृषि विभाग की एक रिपोर्ट की माने तो केवल बंदरों केे चलते फसलों को सालाना 184 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है। बंदरों की यह समस्या उस वक्त और ज्यादा गंभीर हो जाती है जब किसानों के सामने पहले से ही कई परेशानियां हों। हिमाचल किसान सभा के अध्यक्ष डॉ. कुलदीप सिंह तंवर की मानें तो खेती को लेकर पहले से ही समस्याएं कम नहीं हैं। कभी बारिश के चलते मुश्किल होती है तो कभी पानी की समस्या। इसके बाद अब बंदरों की वजह से भी खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। यहां के किसानों के सामने बंदर बड़ी चुनौती बन गए हैं। अब किसान अपनी पूरी ताकत बंदरों से फसलों को बचाने में ही लग रही है।
Monkey
फाइल फोटो IMAGE CREDIT: फाइल फोटो
तंवर का कहना है कि हर वर्ष केवल बंदरों की ही वजह से सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से हिमाचल प्रदेश के कृषि क्षेत्र में करोड़ों रुपये की फसलों का घाटा हो रहा है। प्रदेश की तकरीबन 6.5 लाख हेक्टेयर जमीन के 75 हजार हेक्टेयर से ज्यादा हिस्से को केवल बंदरों और जंगली जानवरों की वजह से बंजर छोड़ दिया गया है।
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स्थानीय किसानों का कहना है कि बंदर फसलों को खाते ही नहीं इन्हें खराब भी कर देते हैं। खेतों को बंदरों से बचाने के लिए घरों से दूर खेतों में लगातार पहरा देने की जरूरत पड़ती है। मजबूरन जमीन को यूं ही बंजर छोड़ दिया है।
नसबंदी से पड़ा फर्क और रुकी बंदरों की आबादी

शिमला वन्य जीव विभाग के डॉ. संजय रतन के मुताबिक वर्ष 2015 में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में करीब 2 लाख 7 हजार बंदर थे। रतन बीते 12 सालों से बंदरों पर काम कर रहे हैं और बताते हैं कि सबसे पहले 2007 में बंदरों की संख्या सीमित करने के लिए इनकी नसबंदी का व्यापक अभियान चलाया गया।
इस अभियान से पहले बदरों की विकास दर प्रति वर्ष करीब 21.4 फीसदी थी। नसबंदी के बाद इनकी जनसंख्या में काफी कमी हुई। बंदरों की औसत आयु 25 से 30 वर्ष होती है। अब तक करीब 1 लाख 43 हजार बंदरों की नसबंदी की जा चुकी है। अगर यह नहीं किया जाता तो बंदरों की संख्या अब तक करीब सात लाख हो जाती।

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