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स्वास्थ्य

लंग्स कैंसर से टूटती वागड़ की सांस

उदयपुर के निजी चिकित्सालय में उपचार लेने वाले 90 फीसदी मरीज बांसवाड़ा-डूंगरपुर जिले के, जागरुकता की कमी के कारण बढ़ रहे हैं मरी

नई दिल्लीFeb 02, 2016 / 11:48 am

Ashish vajpayee

कुछ दिन खांसी और छाती में भारीपन रहने की शिकायत की अनदेखी और कुछ दिन में ठीक हो जाएगी की धारणा वागड़वासियों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। उदयपुर स्थित निजी चिकित्सालय में कार्यरत चिकित्सक की ओर से उपलब्ध कराए गए आंकड़ें पर विश्वास करें तो वागड़ फेफड़ों के कैंसर के शिकंजे में जकड़ गया है।
चिकित्सक के अनुसार उपचार कराने आए फेफड़ों के कैंसर (मेलिग्नेंट मेसोथेलिमा) के 80 मरीजों में से 72 मरीज बांसवाड़ा, परतापुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर आदि क्षेत्रों के हैं। यह स्थिति वागड़ के लिए खतरे की घंटी है। इसके रोकथाम के उपाय बहुत जरूरी है
एेसे होता है फेफड़ों का कैंसर
यह बीमारी एस्बेस्टस के सम्पर्क से होती है। प्लुरा (फेफड़ों और सीने के आंतरिक भाग का बाह्म भाग) इस बीमारी का सबसे अहम स्थान है। यह पेरिटोनियम (पेट का आवरण), हार्ट पेरिकार्डियम हृदय को घेरकर रखने वाला कवच ) या टयुनिका वेजाइनलिस में भी हो सकता है। इस रोग से पीडि़त अधिकांश व्यक्ति या तो एेसे स्थान पर रहते हैं। या नौकरी करते हैं जहां पर श्वसन के दौरान धूल के कण शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, जिससे धीरे-धीरे प्लुरल रिसाव (फेफड़ों और सीने की दीवार के मध्य द्रव्य) मरीज के सीने में दर्द होने लगता है सांस लेने में तकलीफ तथा वजन कम होने लगता है।
एेसे हो सकती है जल्दी पहचान
इस मर्ज की जल्दी पहचान के लिए प्रारम्भिक अवस्था में सीने का एक्स-रे कराना चाहिए। सीटी स्केन, बायोप्सी करवानी चाहिए जिससे मर्ज की जानकारी प्राप्त की जा सके। साथ ही बीमारी के गंभीर होने पर कीमोथेरेपी की जाती है।
ये हैं कारण
*क्षेत्र में फ्लोराइड की अधिक मात्रा
*सोफ स्टोन की खदानंे
*मार्बल माइनिंग
*हवा में उड़ते मिट्टी के महीन कण
*संकेत और लक्षण
*सीने में दर्द
*फेफड़ों में रिसाव
*सांस लेने में तकलीफ
*थकान व रक्ताल्पता
*घबराहट, स्वर बैठना या खांसी
*खांसी में खून आना
जागरुकता की कमी
महात्मा गांधी चिकित्सालय के उपनियन्त्रक डा नन्दलाल चरपोटा ने बताया कि वागड़ में इस रोग को लेकर जनजागरुकता की कमी है। इसके चलते मरीज उपचार के लिए चिकित्सकों से जल्दी सम्पर्क नहीं करते और बाद में यह गंभीर रूप ले लेता है। यह बीमारी खनन क्षेत्र के आस-पास अधिक होने का खतरा रहता है साथ ही अधिक समय तक धूल-मिट्टी में रहने या बचाव नहीं होने से भी हो सकती है। यहां जांच के भी संसाधन नहीं होने से बीमारी जल्दी पकड़ में नहीं आती।

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