खेती-किसानी में काम करते समय इस खुमरी का सभी लोग उपयोग करते थे, जहां धूप से राहत मिलती थी, वहीं बारिश में काफी हद तक बचाव होता था। जब ग्रामीण इस खुमरी को लगाते थे उस समय पॉलीथिन का चलन बाजार में नहीं था। धीरे-धीरे लोगों को आधुनिक सुविधाएं मिलती गईं और लोग खुमरी छोड़ते गए।
काफी पुरानी इस खुमरी को गांव में कम ही किसान उपयोग करते हैं। खुमरी के बारे में बुजुर्ग किसानों से चर्चा करने पर लोगों ने कहा कि यह एक संसाधन हुआ करता था। अब हम लोगों के पास नहीं है। बारिश में इसका उपयोग सभी लोग करते थे। धूप में भी काफी बचाव मिलता था। गांव की पुरानी परम्परा खत्म होते जा रही है। अब तो सिर्फ बुजुर्ग लोग ही इसका उपयोग करते हैं।
एक समय था कि हर सदस्य बारिश और धूप में बचाव के लिए खुमरी साथ लेकर निकलता था। करीब डेढ़ दशक पहले हर घर में खुमरी रहती थी, अब तो धीरे-धीरे खुमरी का कल्चर विलुप्त होते जा रहा है। इस संबंध में राजेन्द्र पोटाई ने कहा बिक डेढ दशक पहले खेतों की जोताई करते समय खुमरी लोग लगाते थे। बैलों के पीछे-पीछे हल की मुठिया पकड़े खुमरी सर पर दिखती थी। खुमरी से जहां पानी से राहत मिलती थी, वहीं धूप से बचाव भी था।
नरेश धनियाल ने बताया कि हमारे दादा खुमरी बनाते थे। कभी-कभी खुमरी को लेकर विवाद होता था। अब तो गांव की कला धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। आदिवासी समाज की खुमरी बंद हो रही है। इस युग में सिर्फ बुजुर्ग ही उपयोग कर रहे हैं।
मंगल साय मंडावी ने कहा कि जब हमारे पिता थे तो घर में खुद खुमरी बनाते थे, उस खुमरी का सभी लोग उपयोग करते थे। अब तो कोई खुमरी बनाने वाला नहीं है। पुरानी बांस की खुमरी का चलन क्षेत्र से धीरे-धीरे गायब हो रहा है।
करण सिंह पद्दा ने कहा कि हम तो अब भी खुमरी लगाकर खेतों में काम करते हैं। खुमरी से लोगों को पानी-धूप से बचाव में मदद मिलती है। खुमरी बनाने वाले अब नहीं हैं। आधुनिकता के इस युग में बांस की खुमरी गायब हो रही है।