नई दिल्ली। तिब्बतियों को आज से नहीं 1949 से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा सताया जा रहा है और उनकी दुर्दशा की स्थिति लेकर दुनिया भर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने उन्हेनिन्साफ देने के लिए आवाज उठाई। सीसीपी ने लाखों तिब्बतियों को उनके मूलभूत मानवीय अधिकारों और स्वतंत्रता से दूर किया हुआ था और उनकी खूबसूरत संस्कृति, धर्म और मूल्यों को खत्म करे की ठान ली थी। लेकिन इतनी बर्बरता को सहने के बाद और झेलने के बाद भी, बड़े ही शांति पूर्वक तरीके से अपनी स्वतंत्रता की मांग करते रहे।
सच्चाई, न्याय और अहिंसा के आधार पर तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन इस दुनिया में बहुत कम विरोधियों में से एक है जो सबसे ज्यादा शांति के साथ जीवन जीते हैं। शायद यही कर्ण है सीसीपी इस आंदोलन की ताकत को अच्छी तरह जानते है इसलिए तिब्बत के लोगों के ऊपर, और उनका दमन करते हैं। उनके शांत स्वाभाव का लाभ उठाते हुए हिंसा का उपयोग करते हैं, उन्हें लगता है ऐसा करने से वो उन्हें तोड़ देंगे, औएर इतना ही नहीं देश के बाहर कुप्रचार भी करते हैं। चीनी शासन के खिलाफ बोलने वाले तिब्बतियों को कैद और उनपर अत्याचार किया जाता है, यहां तक कि कभी-कभी मौत भी दे दी जाती है।
आज हम जिनकी बात करने जा रहे हैं वो तिब्बती बौद्ध भिक्षु, पालडन ग्येत्सो हैं, इनकी कहानी आपको ज़रूर कुछ ना कुछ सिखा के जाएगी क्योंकि उनका जो व्यक्तिवा है वो मानव आत्मा के लचीलेपन और तिब्बती सभ्यता की ताकत की गवाह है। 1959 तिब्बती विद्रोह के बाद, चीनी अधिकारियों ने ग्येत्सो को अपने धार्मिक विश्वासों से समझौता करने से विरोध करने के लिए गिरफ्तार कर लिया था। विरोध करने की वजह से गिरफ्तारी के बाद उन्होंने अपने 33 साल चीनी जेल और श्रम शिविरों में बिताए। इतना ही नहीं जेल में, उन्होंने चीनी शासन की यातनाएं भी झेलीं और उनके सबसे क्रूर रूप का सामना भी किया। सीसीपी के हाथों ग्येत्सो के कुछ सबसे भयानक अनुभव फेसबुक पेज पर शेयर किए और उसका नाम दिया (कहानियां धर्मशाला से)।
ग्येत्सो याद करके बताते हैं कि सितंबर 1990 में, एक चीनी अधिकारी ने एक बिजली का झटका देने वाली मशीन को लिया और उनके मुंह में डाल दिया। इतनी यातना की कि उनके बेहोश होने के बावजूद अधिकारियों ने उन्हें इतनी बुरी तरह पीटा कि जब उन्हें होश आया तो वह अपने ही मलमूत्र और खून में लिपटे पड़े हुए थे। सभी यातनाओं के बावजूद, ग्येत्सो ने कभी भी अपने शांतिपूर्ण विश्वास की शिक्षाओं का पालन करना नहीं छोड़ा और उनके धीरज का सबसे अद्भुत पहलू है खुद पर यातना करने वालों के प्रति कभी रोष का भाव भी अपने चेहरे पर नहीं लाए।
1992 में, ग्येत्सो को रिहा कर दिया गया था और वह भारत के धर्मशाला में रहने लगे। चीनी शासन द्वारा किए गए जुल्मों, अपराधों के सबूत के रूप में वे उनपर किये गए यातना के कुछ साधनों को उनके साथ लाने में कामयाब रहे। तब से उन्होंने कम्युनिस्ट शासन के अत्याचारों का पर्दाफाश करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है, और 1995 में, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र न्यायाधिकरण के सामने गवाही भी दी। चीन ऐसा देश है जहां आज तक मौलिक अधिकारों पर व्यवस्थित रूप से प्रतिबंध लगाया गया है। चीन के मानव अधिकारों का रिकॉर्ड पिछले कुछ सालों में अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय संघ के संयुक्त राष्ट्र जैसे संयुक्त राष्ट्र की निंदा और अपनी चिंता व्यक्त करने के साथ आलोचनाएं भी झेल रहा है देखा जाए तो चीन की बर्बरता का यह एक छोटा सा ही नमूना है।