भारत के आठ शास्त्रीय नृत्यों में से सबसे पुराना कथक नृत्य है। इसकी उत्पत्ति उत्तर भारत में हुई। कथक एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ कहानी से व्युत्पन्न करना है। यह नृत्य कहानियों को बोलने का जरिया है। इस नृत्य के तीन प्रमुख घराने हैं। कछवा के राजपूतों की राजसभा में जयपुर घराने का नृत्य, अवध के नवाब के राजसभा में लखनऊ घराने का और वाराणसी की सभा में वाराणसी घराने का जन्म हुआ। अपनी-अपनी विशिष्ट रचनाओं के लिए प्रसिद्ध एक कम प्रसिद्ध रायगढ़ घराना भी है।
नृत्त वंदना, देवताओं के मंगलाचरण के साथ शुरू किया जाता है।
ठाट, एक पारंपरिक प्रदर्शन जहां नर्तकी सम पर आकर एक सुंदर मुद्रा में खड़ी होती है।
आमद, अर्थात प्रवेश तालबद्ध बोल का पहला परिचय होता है।
सलामी, मुस्लिम शैली में दर्शकों के लिए एक अभिवादन होता है।
कवि, कविता के अर्थ नृत्य में प्रदर्शित किया जाता है।
पडऩ, एक नृत्य जहां केवल तबले का नहीं, बल्कि पखवाज का भी इस्तेमाल किया जाता है।
परमेलु, एक बोल या रचना है, जहां प्रकृति का प्रदर्शन होता है।
गत, यहां सुंदर चाल-चलन दिखाया जाता है।
लड़ी, बोलों को बाटते हुए तत्कार की रचना।
तिहाई, एक रचना जहां तत्कार तीन बार दोहराई जाती है और सम पर नाटकीय रूप से समाप्त हो जाती है।
नृत्य भाव को मौखिक टुकड़े की एक विशेष प्रदर्शन शैली में दिखाया जाता है। मुगल दरबार में यह अभिनय शैली की उत्पत्ति हुई। इसकी वजह से यह महफिल या दरबार के लिए अधिक अनुकूल है ताकि दर्शक कलाकार और नर्तकी के चेहरे की अभिव्यक्त की हुई बारीकियां देख सके। ठुमरी गाई जाती है और इसमें चेहरे, अभिनय और हाथ के साथ व्याख्या की जाती है।