बताया जाता है कि मोहम्मद अवाद और उनकी मंगेतर दोनों को एक किराए के घर की तलाश थी। ऑनलाइन सर्च में उन्हें लेबनान के एक कस्बे में खूबसूरत अपार्टमेंट पसंद आया था। अवाद ने घर के बारे में पूछताछ के लिए मकान मालिक को फोन किया तो पता चला कि पूरे कस्बे में किसी भी मुस्लिम व्यक्ति को रहने की इजाजत नहीं है। ये बात सुनकर अवाद के होश उड़ गए।
अपार्टमेंट के मालिक के अनुसार इस कस्बे के नियमों के तहत वे केवल ईसाई धर्म के लोगों को ही किराए के मकान में रहने दे सकते हैं और वे ही महज संपत्ति खरीद सकते हैं। इस बात की पुष्टि के लिए अवाद ने अपनी मंगेतर सारा राद से नगरपालिका को फोन कर इसकी पुष्टि करने को कहा। तब उसने हदात प्रशासन के नियम के बारे में बताया।
मामले की खोजबीन में पता चला की हदात में मुस्लिमों के रहने पर पाबंदी 15 साल पहले की घटना को देखते हुए लगाई गई थी। दरअसल कई साल पहले ईसाई और मुस्लिम सम्प्रदाय के बीच हुए तनाव ने लेबनान में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर दी थी। जिसमें करीब एक लाख लोग मारे गए थे। ऐसे में ईसाई समुदाय के लोगों को डर था कि कहीं मुस्लिम अपनी आबादी बढ़ाकर अपना हुकुम न चलाने लगे। इसी को रोकने के लिए हदात प्रशासन ने ये सख्त कदम उठाया था।
हदात एक ऐसा इलाका है जहां पर मुस्लिमों के खिलाफ प्रतिबंध सार्वजनिक तौर पर लगाए गए हैं। जबकि केंद्रीय पूर्वी और दक्षिणी लेबनान में अप्रत्यक्ष तौर पर ऐसे प्रतिबंध लगाए गए हैं। लेबनान की कुल आबादी 50 लाख है और यहां करीब 18 धार्मिक पंथ हैं। सन् 1932 में लेबनान में हुई जनगणना के अनुसार वहां ईसाईयों की तादात ज्यादा थी, लेकिन पिछले कुछ दशकों में उनकी संख्या तेजी से घट गई। जबकि अप्रवासियों की संख्या बढ़ गई। इसमें मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या तेजी से बढ़ गई थी।
हदात गांव में न रहने की इजाजत के विरोध में अवाद ने शिकायत की है। इस सिलसिले में मेयर ने कहा कि गृहयुद्ध के खत्म होने के बाद 1990 तक हदात पूरी तरह से ईसाइयों का शहर था लेकिन 2010 तक कई सारे शिया मुस्लिम यहां आकर बस गए। ऐसे में गांव की विरासत को बचाकर रखना चाहिए। हालांकि मेयर के इस फैसले को लेकर सोशल मीडिया पर उनकी काफी आलोचना हो रही है। लोग उनके फैसले को नस्लभेदी करार दे रहे हैं।