जनक माता बताती हैं कि उनकी नई शादी हुई थी। उनकी ससुराल आगरा (Agra) में थी। वह रक्षाबंधन पर फिरोजाबाद अपने मायके आने के लिए घर से निकली थीं। वह आगरा फोर्ट स्टेशन पर खड़ी थीं। तभी किसी ने ससुराल में कह दिया कि आपकी बहू स्टेशन पर घूम रही है। उसके बाद ससुरालीजन उन्हें अपने साथ ससुराल ले गए और उन्हें मायके नहीं जाने दिया। तब वह खूब रोई थीं।
जनक माता बताती हैं कि अब रिश्ते और नाते केवल नाम मात्र को रह गए हैं। अब न तो बहनों के पास समय है और न भाइयों के पास ही। बच्चे स्कूल जाने लगते हैं। उन्हें छुट्टी नहीं मिलती। कुछ नौकरी वाली होती हैं। उन्हें समय नहीं होता। डाक से राखी भेजती हैं। रक्षाबंधन के नाम पर अब केवल खानापूर्ति रह गई है। सभी त्योहार अब धीरे—धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। जब से धन को महत्व दिया गया, तभी से रिश्तों की डोर कमजोर होती चली गई।
गांव की सभी सखियां मिलकर राखी के त्यौहार की खुशियां मनाती थीं। पेड़ पर एक झूला पड़ता था। जिस पर गांव की सभी सहेली एकत्रित होकर एक दूसरे को झुलाती थीं और मल्हारें गाती थीं। उस समय जाति नहीं था। सभी वर्गों की लड़कियां केवल सहेली हुआ करती थीं। वह सभी एक दूसरे के सुख दुख में बराबर की भागीदारी निभाती थीं।
जनक माता बताती हैं कि इस परिवर्तन के पीछे भी एक कारण है। पहले परिवार में घर का बुजुर्ग ही मुखिया होता था। बाकी सभी सदस्य उनके आदेशों का पालन करते थे। इसलिए परिवार एकजुट रहता था और परिवार के अंदर खुशियां होती थीं। मान, सम्मान, रिश्ते होते थे लेकिन जब से बुजुर्गों को किनारे किया गया और युवा मुखिया होने लगे, परिवार की डोर टूटने लगी। अब परिवार में सभी मुखिया होते हैं और घर का बुजुर्ग अपने आप को असहाय समझता है। यदि अभी भी परिवार के मुखिया की जिम्मेदारी घर के बुजुर्ग को दी जाए तो अभी भी रिश्तों में मिठास घुल सकती है।