क्या होती है करेंसी?
अापने अक्सर कहानियों में अशर्फियों के बारे में सुना होगा। मध्य काल में इनका इस्तेमाल चीजों की खरीद फरोख्त में होती थी। लेकिन बदलते दौर के साथ इसमें भी अभूतपर्व बदलाव देखने को मिला। आधुनिक दौर में हमें दुनिया के किसी भी कोने से कुछ भी खरीदने के लिए करेंसी की जरूरत होती है। एेसे में यदि आपसे ये सवाल पूछा जाए कि आखिर करेंसी क्या होती है तो शायद आप इसका सही जवाब न दे पाएं। इसे सामान्य भाषा में समझें तो किसी भी सामान या सेवा को खरीदने के लिए करेंसी वैल्यू का काम करती है। इसके लिए अमूमन तीन तरीके की मुद्रा का इस्तेमाल किया जाता है जो कि कमोडिटी मुद्रा, कागजी मुद्रा आैर काॅमर्शियल बैंक की मुद्रा है।
साेने-चांदी जैसी कीमती चीजों को कमोडिटी मुद्रा कहते हैं, इनकी अपनी वैल्यू होती है। वैश्विक स्तर पर कर्इ बैंक सोने-चांदी के रूप में आंशिक लेनदेन करते हैं। वहीं कागजी मुद्रा की अपनी कोर्इ वैल्यू नहीं होती है। ये वही नोट हैं जो अापकी जेब में है। 8 नवंबर 2016 को हुर्इ नोटबंदी तो आपको याद ही होगा। सरकार ने पुराने नोटों की वैधता खत्म कर दी जिसके बाद ये नोट कागज के टुकड़े में तब्दील हो गए। आज के दौर में कागजी नोट ही सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है। काॅमर्शियल बैंक की मुद्रा की बात करें ताे इसमें चेक, डिमांड ड्राफ्ट, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड आदि शामिल हैं।
किन बातों पर निर्भर करता है डाॅलर के मुकाबले रुपए का मूल्य
अब कागजी मुद्रा की बात करें तो एक सवाल आपके जेहन में ये हाेगा की रुपए की वैल्यू आखिर निर्धारित कैसे होती है? आपके बता दें कि रुपए की तुलना अमरीकी डाॅलर से होती है। दरअसल अमरीकी अर्थव्यवस्था स्थिर होने के कारण अमरीकी मुद्रा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के तौर पर इस्तेमाल होती है। इसलिए डाॅलर की मांग बढ़ने पर दूसरे देशों की करेंसी में गिरावट देखने काे मिलती है। भारतीय रुपए के साथ भी एेसा ही होता है। जैसे ही डाॅलर की मांग बढ़ती है तो भारत को अधिक रुपए खर्च करना पड़ते हैं आैर मांग कम होती है तो कम रुपए में अधिक डाॅलर खरीदा जा सकता है। विदेशों से किसी भी चीज के आयात पर भारत को डाॅलर के मद में भुगतान करना होता है। इसके अलावा रुपए की वैल्यू महंगार्इ दर, ब्याज दर, कारोबारी घाटा, व्यापक आर्थिक नीतियां आैर इक्विटी या शेयर बाजार पर भी निर्भर करती है।
रुपए के लिए क्या करता है रिजर्व बैंक
भारतीय रिजर्व बैंक देश का केंद्रीय बैंक है जो रुपए की स्थिति पर नजर रखता है आैर रुपए को मजबूती प्रदान करने के लिए कर्इ तरीके से हस्तक्षेप भी करता है। हालांकि रुपए में गिरावट से निर्यात करने वाली कंपनियों को अधिक फायदा होता है। यही कारण है कि जिन देशों का निर्यात अधिक है, वो अपने करेंसी वैल्यू को कम रखने की कोशिश करते हैं। चीन भी उन देशाें में से एक है।
1. इसका पहला तरीका ये है कि वो डाॅलर की खरीदारी या बिक्री करे। यदि रिजर्व बैंक रुपए की वैल्यू बढ़ाना चाहता है तो वो डाॅलर की बिक्री करता है। वहीं यदि वो रुपए की वैल्यू घटाना चाहता है तो वो डाॅलर की खरीदारी करता है।
2. आरबीआर्इ के पास दूसरा तरीका ये है कि वो मुद्रा नीति के जरिए रुपए की वैल्यू को प्रभावित करे। रिजर्व बैंक रेपो रेट (जिस दर पर रिजर्व बैंक अन्य बैंकों को पैसा उधार देता है) आैर एसएलआर यानी वैधानिक तरलता अनुपात (बैंकों द्वारा सरकारी बाॅन्ड में न्यूनतम निवेश) में बदलाव करता है तो भी रुपए की वैल्यू प्रभावित होती है। वर्तमान में डाॅलर के मुकाबले रुपए में कमजोरी से निर्यात बिल के मुकाबले आयात बिल तेजी से बढ़ रहा है। ये भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय है।
ब्याज दरों में बदलाव से रुपए पर कैसे पड़ता है असर?
ब्याज दर की मदद से केंद्रीय बैंक महंगार्इ दर को नियंत्रित करता है। लेकिन इसके पहले अाइए जानते हैं कि रेपो रेट व रिवर्स रेपाे रेट क्या होता है। रेपो रेट वह दर हाेता जिस दर पर रिजर्व बैंक दूसरे बैंकों को पैसा उधार देता है। वहीं रिवर्स रेपो रेट वह दर होता है जिस पर रिजर्व बैंक दूसरे बैंकों का पैसा अपने पास रखता है। अधिक रेपो रेट का सीधा मतलब है कि घरेलू बाजार में विदेशी निवेश, करेंसी की वैल्यू के साथ-साथ मांग में भी बढ़ोतरी होगी। एेसे में यदि ब्याज दरों में कमी किया जाता है तो घरेलू करेंसी का आकर्षण कम होगा। अधिक रेपो रेट का एक दूसरा फायदा ये होता है कि रिजर्व बैंक के पास अधिक पैसा उपलब्ध होगा। रिजर्व बैंक ये अधिक पैसा करेंसी की मांग आैर आपूर्ति के लिए इस्तेमाल कर सकता है।
करेंसी की वैल्यू घटने पर क्यों बढ़ती है महंगार्इ
ये बात तो सब जानते हैं कि करेंसी की वैल्यू घटने पर महंगार्इ बढ़ती है। क्योंकि आयात की गर्इ वस्तुआें के लिए अधिक कीमत चुकानी होती है। यदि रिजर्व बैंक ब्याज दरें बढ़ाता है तो इससे चीजों की मांग व कीमतें दोनों ही कम होती हैं। रेपो रेट में बढ़ोतरी से बैंकों को कर्ज लेना महंगा हो जाता है। जिससे बाजार में मनी सर्कुलेशन कम होता है अौर इस प्रकार महंगार्इ पर लगाम लगाया जा सकता है। वहीं यदि रेपो रेट में कटौती करने पर बैंकों को कम ब्याज चुकाना होता है। एेसे में बाजार में मनी सर्कुलेशन बढ़ जाता है जिससे कीमतों में इजाफा होता है।