अरावली पर्वतमाला में धोक ऐसी प्रजाति है, जिसे कृत्रिम रूप से नहीं लगाया जा सकता। धोक अरावली की चोटी तक पाई जाती है। इन वृक्षों के संवर्धन में हिरण, संाभर, बकरी सहित अन्य वन्यजीवों का बड़ा योगदान है। ये वन्यजीव इन वृक्षों की फलियों व बीजों को भोजन के रूप में लेते हैं और बाघ, बघेरे आदि बड़े वन्यजीवों से डरकर पहाडिय़ों की चोटी पर भाग जाते हैं। इन वन्यजीवों के मल के साथ बीजों के गिरने से वर्षाकाल में प्राकृतिक तौर पर ये वृक्ष तैयार हो जाते हैं।
वृक्षों के बड़े होने पर इनकी जड़ें पत्थरों को जकड़ कर रखती है, जिससे अरावली पर्वतमाला रुकी रहती है। गूलर भी पर्वत के पानी को कूप के रूप में रोक कर रखते हैं, पक्षी, गिलहरी, बंदर, लंगूर और छोटे जानवर उसे खाकर पहाड़ी पर फैलाते हैं। नीम भी पहाड़ी को रोके रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। पेड़ों की ये सभी प्रजाति कम पानी में पनप कर जल संरक्षण का कार्य करती हैं।
अलवर शहर में तीन तरफ से पानी आता है, इनमें निधानी और अंधेरी के जंगल से आने वाला पानी निधानी बांध, विजय मन्दिर बांध, कडूकी बांध, टोडियार बांध, प्रताप बंध, ढढीकर बंध में पहुंचता है। इससे आसपास के जल स्रोत रिचार्ज होते हैं। अंधेरी जंगल, किशन कुण्ड, मटियाकुण्ड, सागर, मोचकी, साहब जोहड़ा होते हुए गाजूकी नदी को जीवित करते हैं।
वहीं प्रेम रत्नाकर बांध एव जय समंद तक मदारघाटी, बाला किला में 9 जल संरचनाओं को भरकर सलीम सागर व गाजूकी में पानी की मात्रा बढ़ाते हैं। रूपारेल नदी नटनी का बारा को जीवित रखती है, जो शहर को आगामी 50 वर्षों तक पानी उपलब्ध करा सकता है। इसके अलावा 248 पुराने कुओं को पुनर्भरण से रिचार्ज किया जा
सकता है।
राजेश कृष्ण सिद्ध, पर्यावरणविद्