डॉ. मुनीश्वर गुप्ता ने हिन्दी माध्यम से एमडी किया
फिरोजाबाद के व्यवसायी परिवार से ताल्लुक रखने वाले डॉ. मुनीश्वर गुप्ता ने एसएन मेडिकल कॉलेज, आगरा से एमबीबीएस किया। रेडियोलॉजी में एमडी किया। उन्होंने तय किया कि एमडी की उपाधि हिन्दी माध्यम से लेंगे। चिकित्सा क्षेत्र में हिन्दी माध्यम से कोई उपाधि लेना अपने आप में आश्चर्य ही था। सबको लगा कि मजाक हो रहा है। धुन के पक्के डॉ. मुनीश्वर गुप्ता ने अपना निश्चय नहीं बदला। तब चिकित्सा के तमाम शब्द हिन्दी में नहीं थे। उन्होंने स्वयं इसकी खोजबीन की। 1987 में हिन्दी माध्यम से एमडी की उपाधि ग्रहण करने वाले वे विश्व के पहले चिकित्सक बन गए। फिर उन्होंने हिन्दी हित रक्षक समिति के माध्यम से हिन्दी के लिए लंबा संघर्ष किया। दिल्ली तक में धरना दिया। वे आगरा में चिकित्सा व्यवसाय कर रहे हैं। किसी भी रेडियोलॉजी जांच पर चिकित्सकों को कोई कमीशन नहीं देते। इसका सीधा लाभ मरीजों को मिलता है।
चन्द्रशेखर उपाध्याय ने एलएलएम किया
1990 में एलएलएम की परीक्षा हिन्दी-माध्यम से कराने की मांग को लेकर आगरा के ही चन्द्रशेखर उपाध्याय ने संघर्ष छेड़ दिया। तब एलएलएम की परीक्षा सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से ही होती थी। 23 मार्च १९९० को चन्द्रशेखर आगरा विश्वविद्यालय के प्रांगण में भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनके आह्वान पर छात्रों ने शैक्षणिक-संस्थाएं बन्द करा दीं। कुलपति ने कहा कि प्रश्नपत्र अंग्रेजी में ही होंगे, परन्तु विद्यार्थी उसका उत्तर हिन्दी में भी लिख सकते हैं। चन्द्रशेखर ने अस्वीकार कर दिया। उनकी मांग थी कि प्रश्नपत्र में अंग्रेजी के साथ हिन्दी मंम भी प्रश्न पूछे जाएं। अंततः बार कौंसिल आफ इण्डिया और बार कौंसिल आफ उत्तर प्रदेश से अनुमति के बाद एलएलएम की परीक्षा हिन्दी माध्यम में हुई। 1993 में दूसरे वर्ष की परीक्षा में हिन्दी में उत्तर लिखने पर चन्द्रशेखर को अनुत्तीर्ण कर दिया गया। फिर आन्दोलन, धरनों का लम्बा दौर चला। राज्यपाल के हस्तक्षेप के बाद फिर से उत्तर पुस्तिकां जांची गईं और उत्तीर्ण घोषित हुए। आज भी अनेक विश्वविद्यालयों में छात्र हिन्दी माध्यम से एलएलएम कर रहे हैं। हां, दो वर्ष की जगह सात वर्ष में एलएलएम की डिग्री मिली।
डॉ. जितेन्द्र चौहान ने कृषि विषय पर पीएचडी की
1991 में एक और वीर हिन्दी के लिए आगे आया। जितेन्द्र चौहान ने कृषि विषय में परास्नातक किया। पीएचडी की बारी आई तो अंग्रेजी का चक्कर। उन्होंने निश्चय किया कि हिन्दी माध्यम से ही पीएचडी करेंगे। विश्वविद्यालय तैयार नहीं हो रहा था। तमाम लिखा-पढ़ी के बाद उन्हें सफलता मिली। ‘दूरदर्शन के कार्यक्रमों का किसानों पर प्रभाव’ विषय पर हिन्दी माध्यम से पीएचडी की उपाधि ग्रहण की। डॉ. जितेन्द्र चौहान का कहना है कि कृषि विषय में यह दुनिया की पहली हिन्दी माध्यम की पीएचडी थी। इस समय वे आरबीएस कॉलेज, आगरा में कृषि प्रसार विभाग में प्राध्यापक हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी का कारवां बढ़ रहा है। कृषि क्षेत्र में हिन्दी माध्यम के ही छात्र आते हैं, इसलिए अध्यापन पूरी तरह हिन्दी माध्यम में होना चाहिए।
इनके बाद हिन्दी का परचम लहराया पत्रकार डॉ. भानु प्रताप सिंह ने। उन्होंने पहले आगरा विश्वविद्यालय से एमबीए किया। एमबीए के प्रथम सत्र में हिन्दी में उत्तर लिखने पर उन्हें अनुत्तीर्ण कर दिया गया। प्रबंधन विषय में हिन्दी माध्यम से पीएचडी करने की ठानी तो सबने मजाक उड़ाया। विवि की शोध समिति ने जब शोध प्रबंध का सार (सिनोप्सिस) हिन्दी में देखा तो उसे फेंक दिया गया। काफी प्रयासों के बाद उनकी जीत हुई। 2008 में डॉ. बीआरए विश्वविद्यालय ने प्रबंधन विषय में हिन्दी माध्यम से विद्या वाचस्पति की उपाधि प्रदान की। खास बात यह रही है कि शोध प्रबंध को जांचने वाले विद्वानों ने टिप्पणी हिन्दी में ही लिखी। प्रबंधन विषय में दुनिया की हिन्दी माध्यम से की गई पहली पीएचडी है
हिन्दी माध्यम से एमडी करने वाले वाले डॉ. मुनीश्वर को एक और लड़ाई लड़नी पड़ी थी। सर्वोच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा गया कि देश भर के सभी मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस और बीडीएस की 15-15 प्रतिशत सीटों की परीक्षाएं सिर्फ अंग्रेजी भाषा में ही होंगी। ये सीटें कुल 1600 थीं। हिन्दी हित रक्षक समिति के कर्ताधर्ता डॉ. मुनीश्वर गुप्ता आन्दोलित हो गए। सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने लम्बी सुनवाई के बाद मामला केन्द्र सरकार को भेज दिया। प्रसिद्ध वकील लक्ष्मीमल सिंघवी ने अदालत में तर्कपूर्ण जिरह की। लम्बी जद्दोजहद के बाद केन्द्र सरकार को स्वीकार करना पड़ा कि उपरोक्त सीटों की परीक्षाओं में विद्यार्थी अंग्रेजी के अलावा हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी परीक्षा दे सकते हैं। अस्सी की शुरूआत में शुरू हुआ हिन्दी के मान सम्मान का चुनौती भरा सफर 21वीं सदी तक जारी है।
चन्द्रशेखर उपाध्याय का कहना है कि इतनी कामयाबियों के बाद आज यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इतने वर्ष बाद भी हिन्दी, अंग्रेजी के मकड़जाल से मुक्त हो गई? क्या हिन्दी को उसका यथोचित सम्मान मिल गया? क्या हिन्दी रोजी-रोटी से जुड़ गयी? क्या अंग्रेजी के प्रभाव से देश का मुक्त हो गया? उत्तर मिलता है, जी नहीं। देश की स्वतंत्रता के छह दशक से भी अधिक समय बीत जाने पर भी हिन्दी आज अघोषित आपातकाल की जद में है। अभी देश में नौ परीक्षाएं बड़े स्तर की ऐसी हैं, जहां हिन्दी गायब है। अभी हिन्दी के लिए बहुत कुछ करना है।