इस मंदिर के बारे में ऐसी मान्यता है कि, यहां स्थापित शनि पिंड को हनुमान जी ने लंका से इस जगह पर फेंका था। पौराणिक कथाओं में ऐसा कहा गया है कि, शनिदेव को जब रावण ने कैद कर लिया था तब लंका दहन के बाद हनुमान जी ने ही उन्हें रावण के चंगुल से छुड़ाया था। रावण की कैद से मुक्त होकर शनिदेव इसी स्थान पर आए थे और तब से यहीं विराजित हैं।
शनिदेव के इस मंदिर का निर्माण राजा विक्रमादित्य ने शुरू करवाया था। मराठाओं के शासन काल में सिंधिया शासकों द्वारा इसका जीर्णोद्धार कराया गया। सन 1808 ईसवी में ग्वालियर के तत्कालीन महाराज दौलतराव सिंधिया ने यहां जागीर लगवाई। सन 1945 में तत्कालीन शासक जीवाजी राव सिंधिया द्वारा जागीर को जप्त कर यह देवस्थान औकाफ बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज ग्वालियर के प्रबंधन में सौंप दिया।मंदिर का स्थानीय प्रबंधन जिला प्रशासन मुरैना द्वारा किया जाता है।
लोगों का ऐसा भी कहना है कि, यह शनिदेव की असली प्रतिमा है। शनि के प्रकोप से पीड़ित हजारों लोग यहां आते हैं और उनकी पूजा करते हैं। इस चमत्कारिक शनि पिण्ड की उपासना करने से जल्द ही मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। यहां आने वाले श्रद्धालु दर्शन करने के बाद अपने पहने हुए कपड़े,चप्पल,जूते इत्यादि को मंदिर में ही छोड़ कर जाते हैं। ऐसा करने के पीछे मान्यता है कि, इससे पाप और दरिद्रता से मुक्ति मिलती है।
शनि पर्वत पर बना हुआ हजारों साल पुराने इस मंदिर में विदेशों से भी लोग आते हैं और यहां आकर खुद को धन्य महसूस करते हैं। परंपरा के चलते इस मंदिर में आने वाले भक्त शनि देव को तेल अर्पित करने के बाद बड़े प्रेम के साथ उनसे गले मिलते हैं और अपने दुख-दर्द के बारे में उन्हें बताते हैं। मंदिर में शनि की शक्तियों का वास है ऐसे में भक्तों की पीड़ा दूर ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।