कर्मयोग
एकमात्र जैनाचार्य, जिन्होंने अनेकवाद को समझा, इन सब झंझटों और वाद-विवादों सेे बाहर निकाला। कर्मयोग के साथ जोड़ा। दूसरे धर्मों को साथ जोडऩे के लिए इसका उपयोग करना उन्होंने शुरू किया और आज भी कोई जैन धर्म की तरफ देखकर कुछ अपेक्षा रखता है। उन्होंने इसे अनेकवाद, एकान्तवाद से जोड़ा। इससे अपेक्षा जुड़ी हुई है या इसके सहारे इस देश को एक नई दिशा मिलनी चाहिए और कौनसी दिशा मिलनी चाहिए इस पर आचार्य तुलसी ने १९७४ में अपनी एक पुस्तक ‘आयारो’ में लिखा है। उन्होंने स्वयं इसकी भूमिका लिखी थी। इस भूमिका से प्रकाश की किरणें नजर आती हैं। इसमें लिखा है कि हर धर्म किसी ना किसी रूप में कर्म, संन्यास या कर्मयोग की बातें करता है। क्योंकि कर्म और शरीर अलग नहीं हो पाते। इनका आपस में कोई ना को? योग ग बना ही रहता है, तो कर्मयोग एक सीमा तक ही सीमित रहता है। उसके आगे संभव नहीं है। तब प्रश्न यह उठता है कि त्याग किसको माना जाए?
एकमात्र जैनाचार्य, जिन्होंने अनेकवाद को समझा, इन सब झंझटों और वाद-विवादों सेे बाहर निकाला। कर्मयोग के साथ जोड़ा। दूसरे धर्मों को साथ जोडऩे के लिए इसका उपयोग करना उन्होंने शुरू किया और आज भी कोई जैन धर्म की तरफ देखकर कुछ अपेक्षा रखता है। उन्होंने इसे अनेकवाद, एकान्तवाद से जोड़ा। इससे अपेक्षा जुड़ी हुई है या इसके सहारे इस देश को एक नई दिशा मिलनी चाहिए और कौनसी दिशा मिलनी चाहिए इस पर आचार्य तुलसी ने १९७४ में अपनी एक पुस्तक ‘आयारो’ में लिखा है। उन्होंने स्वयं इसकी भूमिका लिखी थी। इस भूमिका से प्रकाश की किरणें नजर आती हैं। इसमें लिखा है कि हर धर्म किसी ना किसी रूप में कर्म, संन्यास या कर्मयोग की बातें करता है। क्योंकि कर्म और शरीर अलग नहीं हो पाते। इनका आपस में कोई ना को? योग ग बना ही रहता है, तो कर्मयोग एक सीमा तक ही सीमित रहता है। उसके आगे संभव नहीं है। तब प्रश्न यह उठता है कि त्याग किसको माना जाए?
आचार्य तुलसी ने गीता को उद्धृत किया है, यह कोई साधारण बात नहीं है। इसे हम आध्यात्मिक दृष्टि से देखें कि एक गुरु कितने उदार बने! जिन्होंने अन्य धर्मों के गुणों को धरातल पर देखने और रखने का प्रयास किया। अपने सिद्धान्तों को, समानताओं के साथ-साथ विषमताओं को भी आंकने का प्रयास किया। उन्होंने लिखा है कि गीता के अनुसार आसक्ति के नियम ज्यों की त्यों पढक़र सुना रहा हंू।
गीता के अनुसार आसक्ति और कर्मफल को छोडऩा त्याग है। आचार्यों के अनुसार कर्म को छोडऩा त्याग है। राग, द्वेषयुक्त कर्म और फल कामना ही असंयम है। अत: आचार्यान्(आचार्यों के) और गीता का अभिमत शाब्दिक भिन्नता होने पर भी आर्थिक(अर्थ) रूप से भिन्न नहीं है। दोनों ही शब्द अलग-अलग काम में ले रहे हैं लेकिन अर्थ, मन्तव्य और मतलब दोनों का एक ही है। इस तरह अभिन्नता के होने पर भी आर्थिक भिन्नता के आधार पर दो परम्पराएं विकसित हुईं। गीता में कर्म करने के पक्ष में बल दिया जाता है। अनासक्ति और फल त्याग की बात उतनी प्रबल दिखाई नहीं देती।
महत्वाकांक्षा
आचार्यान् की परम्परा के अनुसार कर्म में न करने के पक्ष में भी बल दिया जाता है। राग, द्वेष और आसक्ति त्याग की बात उतनी प्रबल दिखाई नहीं देती है। इस प्रकार दोनों परम्पराएं दो दिशाओं में विकसित हुईं। किन्तु दोनों की समान दिशाओं का जो बिन्दु था, शाब्दिक भिन्नता में ओझल हो गया। दर्शन के क्षेत्र में यह कोई छोटी बात नहीं है। जो चिन्तन करने वाले लोग हैं, उन्हें यह बात समझ में आएगी कि इस प्रकार की अभिव्यक्ति और मन की विशालता, उदारमना किसी आचार्य की कलम में आसानी से दिखाई नहीं देता। धर्म को इतना बड़ा स्वरूप देना, अनेकता में एकता का इतना बड़ा प्रयास आज अपेक्षा रखता है कि अन्य धर्म भी इस मार्ग को प्रशस्त करें। इसमें सहयोगी या सहायक बनें तो हम देश को कुछ दे सकते हैं।
आचार्यान् की परम्परा के अनुसार कर्म में न करने के पक्ष में भी बल दिया जाता है। राग, द्वेष और आसक्ति त्याग की बात उतनी प्रबल दिखाई नहीं देती है। इस प्रकार दोनों परम्पराएं दो दिशाओं में विकसित हुईं। किन्तु दोनों की समान दिशाओं का जो बिन्दु था, शाब्दिक भिन्नता में ओझल हो गया। दर्शन के क्षेत्र में यह कोई छोटी बात नहीं है। जो चिन्तन करने वाले लोग हैं, उन्हें यह बात समझ में आएगी कि इस प्रकार की अभिव्यक्ति और मन की विशालता, उदारमना किसी आचार्य की कलम में आसानी से दिखाई नहीं देता। धर्म को इतना बड़ा स्वरूप देना, अनेकता में एकता का इतना बड़ा प्रयास आज अपेक्षा रखता है कि अन्य धर्म भी इस मार्ग को प्रशस्त करें। इसमें सहयोगी या सहायक बनें तो हम देश को कुछ दे सकते हैं।
आज देश में उल्टा हो रहा है। पूरे देश में अभी नजर डालकर देखिए कि संन्यासी स्वच्छन्द होकर भोग में व्यस्त हो रहे हैं। संन्यास लेकर भी गृहस्थ जैसी महत्वाकांक्षा उनसे छूट नहीं रही है। सांसारिक पक्ष के रिश्तेदार, संबंध उनसे छूट नहीं पा रहे हैं। संन्यास भी एक तरह का अहंकार पैदा कर रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम उन अवदानों का आकलन करते हैं, उन पर चिन्तन करते हैं, उनके स्वरूप का पुनर्निर्माण करके इस संघ के पुनर्निर्माण में जोडऩे की बात सोचते हैं तो हमें इनमें से कई चीजों को देखना पड़ेगा।
आज अगर हम अखबारों को, मीडिया, टीवी को देखते हैं तो समझ जाएंगे कि अनेक धर्मों में संन्यासी धर्म को कलंकित करने में जुटे हुए हैं। ये बातें कहां से आ रही हैं? इस पर भी हमको चिन्तन करना पड़ेगा कि यह स्वरूप या ये विकृतियां हमारे स्वरूप में किस दरवाजे से अन्दर आ रही हैं? और ये दरवाजे बंद नहीं होते तो हम आचार्य श्री की जो भी बाते हैं या जो कुछ भी उन्होंने त्याग किया, तपस्या की उन तक हम संपर्क ही नहीं बना पाएंगे। उन सब चीजों से संपर्क कट जाएगा। हम भी उनके साथ जुडक़र उनके अवदान को आने वाली पीढिय़ों तक कैसे पहुंचा पाएंगे और कैसे हमारा अहंकार छूट पाएगा?
मर्यादा महोत्सव
इस दिशा में भी आचार्य तुलसी ने बहुत बड़ा काम किया और अभी तक चल रहा है इस सम्प्रदाय में। धर्म के जो गुरु हैं, उन पर खुद पर भी अंकुश बना रहे, साधु-साध्वियों पर भी बना रहे और उसकी निरन्तरता में कहीं टूट ना हो उसका प्रमाण है हमारा ‘मर्यादा महोत्सव’। किसी धर्म में इस तरह का एक वार्षिक उत्सव जिसमें हम अपने सारे उत्तरदायित्व के बोझ पर पुनर्विचार करते हैं। संकल्प को दोहराते हैं। यानि आचार्य भी स्वयं उस मर्यादा से बाहर जीने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। इसी तरह अन्य सम्प्रदायों में भी हमें समझना चाहिए कि क्या वहां मर्यादा महोत्सव दिखाई पड़ते हैं? और अगर नहीं पड़ते तो हमें इन आचार्यों का अभिनन्दन करना चाहिए कि ये हमारा मार्ग प्रशस्त करते रहें। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो हमें उसके परिणाम भी भोगने पड़ेंगे, या ये सामने आ जाएंगे।
इस दिशा में भी आचार्य तुलसी ने बहुत बड़ा काम किया और अभी तक चल रहा है इस सम्प्रदाय में। धर्म के जो गुरु हैं, उन पर खुद पर भी अंकुश बना रहे, साधु-साध्वियों पर भी बना रहे और उसकी निरन्तरता में कहीं टूट ना हो उसका प्रमाण है हमारा ‘मर्यादा महोत्सव’। किसी धर्म में इस तरह का एक वार्षिक उत्सव जिसमें हम अपने सारे उत्तरदायित्व के बोझ पर पुनर्विचार करते हैं। संकल्प को दोहराते हैं। यानि आचार्य भी स्वयं उस मर्यादा से बाहर जीने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। इसी तरह अन्य सम्प्रदायों में भी हमें समझना चाहिए कि क्या वहां मर्यादा महोत्सव दिखाई पड़ते हैं? और अगर नहीं पड़ते तो हमें इन आचार्यों का अभिनन्दन करना चाहिए कि ये हमारा मार्ग प्रशस्त करते रहें। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो हमें उसके परिणाम भी भोगने पड़ेंगे, या ये सामने आ जाएंगे।