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वसंत आएगा, होली मनेगी, कोयलें कूकेंगी…माताएं बिलखेगी-बहनें सुबकेंगी

locationजबलपुरPublished: Feb 17, 2019 08:19:49 pm

Submitted by:

shyam bihari

सिहोरा का खुड़ावल गांव अपने शहीद अश्विनी के लिए रो रहा है। जर्रा-जर्रा सुबक रहा है। गलियां उदास हैं। चेहरे बदहवास हैं।

वसंत आएगा, होली मनेगी, कोयलें कूकेंगी...माताएं बिलखेगी-बहनें सुबकेंगी

वसंत आएगा, होली मनेगी, कोयलें कूकेंगी…माताएं बिलखेगी-बहनें सुबकेंगी

जबलपुर। सिहोरा का खुड़ावल गांव अपने शहीद अश्विनी के लिए रो रहा है। जर्रा-जर्रा सुबक रहा है। गलियां उदास हैं। चेहरे बदहवास हैं। घर चीत्कार कर रहे हैं। माताएं बिलख रही हैं। बहनें सुबक रही हैं। खेत-खलिहान वीरान हैं। फिर भी वसंत आएगा। होली भी मनेगी। गेहूं की फसल लहलहाएगी। कोयलें कूकेंगी। प्रकृति अपने हिसाब से चलेगी। इंसान मजबूरियों को जब्त करेगा। कुछ की इच्छाएं हवस भी बनेंगी। कई को मन मारकर जिंदा रहना पड़ेगा। ऐसे में क्या शहीद होने को भी नियति मान लेना चाहिए? बहुतों का दिमाग कहता है यह नियति ही तो है। दिल तो भावुक होता है। वह ऐसा मानने नहीं देता। समाज समय के साथ बहता है। आज समाज के हर तबके में अश्विनी के लिए जोश है। जज्बा भी है। देश के लिए कुर्बान होने की आवाजें आ रही हैं। शहीदों की अंतिम यात्रा में हुजूम उमडऩा बताता है कि समाज से भावनाएं मरी नहीं हैं। अच्छा लगा कि शहीदों के मामले में राजनीति नहीं होती। इससे भी अच्छी बात है, इस मामले में जातिगत भेद नहीं नजर आता। वरना, जाति का रंग का तो इतना कसैला हो गया है कि आंखें सहन नहीं कर पातीं। लहू के रंग भले नहीं बदले हैं, विचारों में पहाड़ जैसा अंतर आ गया है। विचार एक हो भी नहीं सकते। फिर भी देश-समाज हित की बात आए तो व्यक्तिगत हितों की तिलांजलि देनी ही पड़ती है। शहीदों को कोई जाति नहीं होती। धर्म भी उनका सिर्फ राष्ट्रहित होता है। ऐसे में उन्हें राजनीति का शिकार बनाने से पहले किसी की भी रूह कांप सकती है। लेकिन, समाज का कोई छोटा सा भी वर्ग यह कहे कि हमला प्रायोजित है, तो मानने की मजबूरी होती है कि हालात सामान्य नहीं हैं। कोई न कोई चिंगारी है, जो अंदर ही अंदर धधक रही है। यहां सवाल किसी की नीयत पर नहीं उठाया जा सकता। किसी भी मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष में सोचने वाले होते हैं। होने भी चाहिए। अलग-अलग सोच से ही लोकतंत्र मजबूत होता है। जिस दिन सोच पर पहरा पर पहरा, लगा, उस दिन से मौलिक अधिकार छिनने लगते हैं। लेकिन, सोच किसी भी दृष्टि से देशविरोधी नहीं होनी चाहिए। तर्क सच और गलत की खाई कभी नहीं पाट सकते। तर्क आधा-आधा ही होते हैं। आधा एक पक्ष में सही। आधा दूसरे पक्ष के लिए गलत। सोच कभी मारी नहीं जा सकती। यह बदलाव भी लाती है। विध्वंस भी कराती है। फिर वही कहानी। सुकरू जैसे तमाम पिता शहीद बेटे की याद में रोएंगे। गर्व करेंगे। गुस्सा भी करेंगे। फसलें कटेंगी। त्योहार मनेंगे। गम में रोते-रोते आंसू आखिर सूख तो जाते ही हैं ना!!!!!

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