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12 एंग्री मैन – एक सामाजिक यथार्थ का आईना

locationजयपुरPublished: Mar 18, 2019 05:56:05 pm

Submitted by:

Anurag Trivedi

नाट्य समीक्षा
 

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रविवार की शाम जवाहर कला केंद्र के रंगायन में अमरीकन टी वी के शुरुआती दौर और बाद में फिल्म लेखन के लिए विख्यात रहे रेजीनाल्ड रोज़ द्वारा मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखित और देश के प्रतिष्ठित नाट्य निर्देशक और लेखक रंजीत कपूर द्वारा हिन्दी में रूपांतरित बहुचर्चित नाटक 12 एंग्री मैन (एक रुका हुआ फैसला) के बेहतरीन मंचन को देखने का मौका मिला।
यूरोपियन पुनर्जागरण आंदोलन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के तौर पर जब सामाजिक मनोविज्ञान विषय का प्रादुर्भाव हुआ तो उसने कलाओं को भी प्रभावित किया। तब रंगमंच ने भी सामाजिक जीवन के ठोस यथार्थ की खोजबीन शुरू की। देव स्तुतियों और राज प्रशस्ति से रंगकर्म का पिंड छूटा और तब मंच पर आम आदमी की बातें होने लगी। मनुष्य की स्वतन्त्रता और सामाजिक न्याय की तलाश होने लगी। यथार्थवाद की यह लहर यूरोप से अमरीका होती हुई भारत भी आई और इसने समूचे कला जगत को बेहद प्रभावित किया। जहां एक ओर भारतीय सिनेमा में सत्यजित राय से लेकर श्याम बेनगल और गोविंद निहलाणी ने अपने कलाकर्म में यथार्थवाद को अभिव्यक्ति का एक सशक्त उपकरण मानते हुये आत्मसात किया वहीं रंगमंच में विजय तेंदुलकर से लेकर मोहन राकेश भी इससे अछूते नहीं रहे। 12 एंग्री मैन उसी यथार्थवादी रंग परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।
यथार्थ (सामाजिक परिघटना) और यथार्थवाद (सामाजिक परिघटना का कलात्मक प्रतिनिधित्व) के बीच के फर्क को समझते हुये दर्शकों को भावनात्मक और वैचारिक स्तर पर प्रस्तुति के साथ जोड़ लेना यथार्थवादी नाटकों की सबसे बड़ी चुनौती होती है। यह चुनौती 12 एंग्री मैन जैसे नाटकों के साथ और बढ़ जाती है क्योंकि नाटक अपनी संरचना में घटना प्रधान न होकर संवाद प्रधान है। चरित्रों के संवाद के जरिये ही हत्या की वह घटना जिस पर इन बारह लोगों को एक राय के साथ मुल्ज़िम के बारे में फैसला सुनाना है, दर्शकों के सामने आती है। दूसरी चुनौती यह है कि नाटक का स्थान एक ऐसा कॉन्फ्रेंस हाल है, प्रथम दृष्ट्या जिसमें अभिनेताओं के सबसे प्रिय कार्य उठने, बैठने, चलने, फिरने और भाव भंगिमाओं को फैलाकर अभिव्यक्त करने के अवसर सीमित हैं।
इन चुनौतियों के बावजूद निर्देशन, अभिनय और मंच पार्श्व तीनों ही लिहाज से नाटक की प्रस्तुति दर्शकों को बहुत ही संतुलित रूप में भावनात्मक और बौद्धिक स्तर पर लगभग पौने दो घंटे तक बांधे रहती है। जब चाहती है हँसाती है, जब चाहती है रुलाती है और गंभीरता से सत्य का अन्वेषण करने के लिए विचार करने को प्रेरित करती है। निर्देशन के लिहाज से, ठहरी और बैठी हुई सी दिखने वाली पटकथा में गतिशीलता को चुरा लाना और उस गतिशीलता को अर्थपूर्ण छवियों और दृश्य बंधों में तब्दील कर देना प्रस्तुति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। जो अभिनेताओं के इनर एक्शन और उठने बैठने चलने फिरने के लिए मोटिवेशन को भी सहज बनाती है।
अभिनय के लिहाज से जहां एक ओर, लंबे समय से रंगमंच पर काम कर रहे अभिनेता योगेंद्र अपने पुराने खोल से बाहर निकल कर नए किरदार में जान फूंकने की दमदार कोशिश करते हुये नज़र आते हैं वहीं नए अभिनेता चित्रार्थ, विशाल, निशांत, राजेश, शकील, पारस, विपिन, संचित, नीरव और गौरव अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व और किरदार की सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ बहुत सहज इंटरप्ले करते हुये दिखते हैं। प्रोटेगोनिस्ट के रूप में संदीप मंच पर असाधारण रूप से जम कर खड़े दिखाई देते हैं।
उत्तर औपनिवेशिक भारत के रहन सहन को इंगित करती वेषभूषा और रवि बांका जैसे नामी मेकअप कलाकार की रचनात्मकता उम्दा तरीके से नाटक के लिए अपेक्षित माहौल को तैयार करने में मददगार साबित होती है और सेट/मंच सामग्री की डीटेलिंग की कमियों को छुपा देती है। स्वप्निल जैन की प्रकाश परिकल्पना नाट्यनुकूल थी मगर छाया और रोशनी का खेल और किया जा सकता था।
कोई भी प्रस्तुति सफलता के बावजूद परम उत्कृष्ट नहीं होती। उसमें सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। छाया और प्रकाश, ध्वनि और मौन, गति और ठहराव ये कुछ ऐसे तत्व हैं जिनके इंटरप्ले से यथार्थवादी नाटक अपनी नाटकीयता की ऊंचाइयों की तरफ बढ़ता है। यदि इन तत्वों पर उद्देश्यपरक तरीके से गौर किया जाए तो यह नाटक और बेहतर हो सकता है।
कुल मिलाकर, लगभग तीन महीने के रचनात्मक श्रम से तैयार इस नाटक को देखकर कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक विशाल विजय की अगुवाई में जयपुर रंगमंच नए मानक स्थापित कर रहा है।
(नाटक की समीक्षा शिक्षा में रंगमंच और नाट्यकला विशेषज्ञ एवं नाट्य निर्देशक अभिषेक गोस्वामी ने की है )

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