मन्दिर के वर्तमान महन्त महावीरदास बताते हैं कि स्थापना को लेकर दो मत हैं, लेकिन प्रामाणिक मत के अनुसार मन्दिर की स्थापना विसं 1700 में हुई। उस समय लक्ष्मणगढ़ कस्बा बसा नहीं था तथा उक्त (मन्दिर) स्थान पर निर्जन वन था। बताया जाता हैं कि वैष्णव निरंजनी संपद्राय के 12वें महन्त नरीदास भ्रमण करते हुए यहां आए तथा स्थान को उपयुक्त मानकर यहां एक ऊंचे टीले पर अपनी साधना शुरू की। महन्त नरीदास अपने साथ उस समय श्रीजी (चतुर्भुज भगवान श्रीकृष्ण व राधा) की प्रतिमा लाए थे जिसे उन्होंने यहीं स्थापित कर दी। उस समय यह क्षेत्र फतेहपुर के नवाबों के अधीन था। मन्दिर में ही स्थापित दानव-दलन वीर हनुमान मन्दिर की प्रतिमा का भी रोचक इतिहास हैं। पूर्व में मन्दिर के सामने का मार्ग सुजानगढ़-सालासर से लोहार्गल-शाकम्भरी जाने का प्रमुख मार्ग था।
विसं 1740 में कुछ श्रद्धालु एक विशाल हनुमान प्रतिमा को लोहार्गल की ओर से बैलगाड़ी में रखकर ला रहे थे। जैसे ही बैलगाड़ी मन्दिर के सामने पहुंची, बैल अचानक रुक गए। श्रद्धालुओं ने अन्य ग्रामीणों के सहयोग से गाड़ी को हिलाने की तथा बाद में मूर्ति को उतारने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। संयोगवश उसी समय वहां से सीकर के रावराजा अपने लवाजमे के साथ गुजर रहे थे। यह दृश्य देखकर वे रुक गए तथा अपने सैनिकों को उक्त मूर्ति गाड़ी से उतारने का आदेश दिया लेकिन रावराजा के सैनिक तथा बाद में उनके सहयोग के लिए जुटे हाथी भी मूर्ति को नहीं हिला सके।
इधर मन्दिर में साधनारत महन्त नरीदास ने यह दृश्य देखकर रावराजा को कहा कि यह सिद्ध प्रतिमा इसी स्थान पर स्थापित होने की इच्छुक हैं। रावराजा के कहने पर महन्त उक्त मूर्ति को लेने आए तथा आश्चर्यजनक रूप से अपने शिष्य कल्याणदास के साथ मिलकर महन्त नरीदास ने उक्त दानव-दलन वीर हनुमान प्रतिमा को उठा लिया तथा लाकर मन्दिर में स्थापित कर दिया। संस्थापक महन्त नरीदास से लेकर अब तक उक्त मन्दिर के 13 महन्त हुए हैं। मन्दिर के महन्त शिष्य परम्परा से ही हुए हैं न कि पुत्र परम्परा से। तेरहवें महन्त के रूप में महन्त महावीरदास वर्तमान में मन्दिर में पूजा एवं आराधना सहित प्रभुसेवा प्रकल्पों में लगे हैं। एक और दिलचस्प बात यह हैं कि सभी महन्त पूजा आराधना के साथ-साथ समाजसेवा में भी सक्रिय रहे हैं। मन्दिर के सभी पूर्ववर्ती महन्त आयुर्वेद चिकित्सक रहे हैं, तथा निशुल्क चिकित्सा के माध्यम से समाजसेवा कर चुके हैं। दसवें महन्त भगवानदास तो राजस्थान आयुर्वेदिक चिकित्सा इकाई के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इसके अतिरिक्त मन्दिर में शिक्षा, चिकित्सा तथा शारीरिक कौशल के प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलते रहे हैं। सातवीं पीढ़ी के महन्त रूपदास ने रावराजा लक्ष्मणदास की सेना में सहयोगी के रूप में सेवा देते हुए उन्हें नारनौल (हरियाणा) तक विजय पाने में सहयोग किया था।
छप्पनियां अकाल में किया था जनसहयोग
प्राचीन लेखों में मिले प्रमाण बताते हैं कि यह मन्दिर के अधीन पूर्व में प्रचुर सम्पदा रही हैं। छप्पनियां अकाल के समय तत्कालीन महन्त भगवानदास ने नगर के सभी प्रमुख परिवारों को आर्थिक सहयोग दिया था, जिसका आज भी प्रमाण विद्यमान हैं। मन्दिर के महन्त महावीरदास बताते हैं कि हनुमान चालीसा, स्वाध्याय, जागरण, अखण्ड रामायण, रामधुन आदि धार्मिक प्रकल्प तो मन्दिर में लगातार होते ही हैं। प्रत्येक शनिवार को हनुमान चालीसा के एकादश पाठ तथा मंगलवार, शनिवार व पूर्णिमा को सस्वर सुन्दरकाण्ड पाठ होते हैं। हनुमान जयन्ती, दशहरा, अन्नकूट, रामनवमी, कृष्ण-जन्माष्टमी तथा शरद-पूर्णिमा पर मन्दिर में विशेष आयोजन होते हैं। मन्दिर में शुद्ध घृत की तीन-तीन अखण्ड ज्योतियां निरन्तर प्रदीप्त रहती हैं।
गढ़ के साथ रखी गई थी नींव
लक्ष्मणगढ़ कस्बे के ऐतिहासिक गढ़ (दुर्ग) में स्थित बालाजी का मन्दिर कस्बे में सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित मन्दिर हैं। करीब 150 फीट की ऊंचाई पर बने इस मन्दिर का निर्माण नगर के बसने से पूर्व तथा गढ़ (दुर्ग) के निर्माण के साथ हुआ था। बताया जाता हैं कि सीकर के रावराजा लक्ष्मणसिंह एक बार शिकार के लिए यहां आए। उस समय लक्ष्मणगढ़ नगर बसा नहीं था। दुर्ग वाले स्थान पर एक पहाड़ी थी जिसे बेर की पहाड़ी कहा जाता था। इस पहाड़ी पर एक भव्य हनुमान प्रतिमा थी। रावराजा लक्ष्मणसिंह ने पहाड़ी पर देखा कि एक गाय अपने बछड़े की रक्षा के लिए शेर का सामना कर रही थी। यह दृश्य देखकर रावराजा ने इस स्थान को चमत्कारिक तथा हनुमान प्रतिमा को सिद्धपीठ मानकर इसी पहाड़ी पर दुर्ग का तथा प्रतिमा वाले स्थान पर मन्दिर का निर्माण कराया।
पूरी वानर सेना हैं विराजमान
मन्दिर में हनुमान जी की विशाल दक्षिणमुखी प्रतिमा विराजमान हैं। उनके साथ भगवान राम की सेना के प्रतीक वानर-सैनिकों की छोटी-छोटी मूर्तियां भी स्थापित हैं। गढ़वाले बालाजी की कस्बे में ग्रामदेवता के रूप में मान्यता हैं। शादी-विवाह, पुत्रजन्म, जात-जडूला सहित सभी मांगलिक आयोजनों पर इस मन्दिर में धोक लगाई जाती हैं। यहां तक कि गौवंश को बछड़ा या बछड़ी के जन्म पर भी यहां दूध व दही का प्रसाद चढ़ाया जाता हैं। मान्यता हैं कि यहां नारियल बांधकर मांगी गई मनौती पूरी होती हैं। यहां मनाए जाने वाले पर्वों में हनुमान जयन्ती तथा विजयादशमी मुख्य है। इनके अतिरिक्त श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को यहां विधिवत पूजन किया जाता हैं। श्रद्धालुओं की ओर से अक्सर अखण्ड रामायण, सुन्दरकाण्ड, रुद्राभिषेक आदि के आयोजन किए जाते हैं। मन्दिर के आदि पुजारी कौशालीराम हुए थे जो पाण्डित्यकर्म के साथ-साथ युद्धकला में भी निपुण थे। बताया जाता हैं कि रावराजा लक्ष्मणसिंह ने 1887 में जब बलारां किले पर विजय प्राप्त की तब उस युद्ध में कौशालीराम ने भी प्रमुख भूमिका निभाई थी। आज उन्हीं की छठी पीढ़ी यहां पुजारी परम्परा का निर्वहन कर रही हैं।
मन्दिर के पुजारी परिवार के सदस्य संजय जोशी के अनुसार गढ़वाले बालाजी लक्ष्मणगढ़ के ग्रामदेवता के रूप में विद्यमान हैं तथा दुर्ग पर रहकर पूरे कस्बे की रक्षा करते हैं। इस सिद्धपीठ पर आस्था के साथ की गई मन्नत पूरी होती हैं। मन्दिर के वार्षिक आयोजनों के साथ सायंकालीन आरती भी श्रद्धालु बड़ी संख्या में आते हैं।