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अशुभ कर्मों के आगे सभी घुटने टेक देते हैं: आचार्यश्री विद्यासागर

उन्होंने कहा कि जहां प्रकृष्ट रूप से स्वभाव की भावना हो, किसी को भी आकृष्ट करने का भाव न हो, किसी को समझाने का कार्य न हो, किसी अन्य को सिखाने की उत्सुकता न हो, प्रकट ज्ञान से स्वयं को समझाा सके, स्वयं ही निज स्वभाव से आकर्षित हो जाए, अपने में तृप्त हो जाए वही सही प्रभावना है।

सागरJan 17, 2019 / 04:16 pm

vishnu soni

Shri Vidyasagar Maharaj

Shri Vidyasagar Maharaj

खुरई. अतिशय क्षेत्र नवीन जैन मंदिर में विराजमान आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने बुधवार को धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि अषुभ कर्मों के आगे सभी घुटने टेक देते हैं। अशुभ कर्मों का उदय किसी को नहीं छोड़ता, परन्तु जो कर्मों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं वह तीर्थंकर बन जाया करते हैं। उनकी प्रेरणा से ही हमारा मोक्ष मार्ग प्रषस्त हो सकता है। छल्लेदर तूफानी बातों से अपना ज्ञानीपना दिखाकर भीड़ इक_ी हो जाए, जन-सैलाब उमड़ आये क्या इसी का नाम प्रभावना है। चारो तरफ जन ही जन का दिखना निज का खो जाना यही प्रभावना है। स्वयं से अनजान पर की पहचान का नाम प्रभावना नहीं है। जहां भाषा थम जाए, भाव प्रकट हो जाए शब्द मौन हो और ‘मैं कौन हूँ इस प्रष्न का समाधान मिल जाए, जहां बाहर की भीड़ नहीं ज्ञान का नीड़ मिल जाए वही सही प्रभावना है। क्षयोपषम से प्राप्त शब्दों से जनता को प्रभावित करना बहुत आसान कार्य है, लेकिन निज स्वभाव से प्रभावित होकर नितान्त एकाकी अनुभव करना बहुत कठिन है वही शाष्वत प्रभावना है, जो स्वभाव से च्युत न हो। भीड़ का क्या भरोसा? उनकी आज कषाय मंद है धर्म-श्रवण की भावना है अत: वह सब अपने अपने पुण्य से आये हैं और वक्ता का भी पुण्य है इसलिए श्रोता श्रवण करने आये हैं किन्तु पुण्य कब पलटा खा जाए कोई भरोसा नहीं। जो पलट जाए वह कैसी प्रभावना।
उन्होंने कहा कि जहां प्रकृष्ट रूप से स्वभाव की भावना हो, किसी को भी आकृष्ट करने का भाव न हो, किसी को समझाने का कार्य न हो, किसी अन्य को सिखाने की उत्सुकता न हो, प्रकट ज्ञान से स्वयं को समझाा सके, स्वयं ही निज स्वभाव से आकर्षित हो जाए, अपने में तृप्त हो जाए वही सही प्रभावना है। अज्ञानता से बाह्य प्रभावना में मान की मुख्यता रह जाती है और यथार्थ तत्वज्ञान की हीनता रहती है। स्वयं को ठगना आध्यात्मिक दृष्टि से अनैतिक कार्य है इसमें बहुत शक्ति व्यय करके भी किं्चित भी आनंद प्रतीत नहीं होता।
जबकि अंतर्दृष्टि से अल्प पुरूषार्थ में ही आह्लाद होता है अत: अंतरंग में उद्यमी होकर अंतर प्रभावना ही श्रेष्ठ है। अपना आत्महित साधने में यदि किन्हीं सुपात्र जीवों का कल्याण हो जए तो ठीक है किन्तु मात्र दुनिया की चिंता करके आत्म कल्याण की उपेक्षा करना बहुत बड़े घाटे का सौदा है। आचार्यश्री ने कहा कि ध्यान रखना किसी का कल्याण किसी के बिना रूकने वाला नहीं है जिसका उपादान जागृत होगा उसे निमित्त मिल ही जायेगा। व्यर्थ में पर कर्तृत्व के विकल्प में आत्मा की अप्रभावना करना घोर अज्ञानता है। आपे में आओ, बहुत हो गयी स्वयं की बर्बादी, अब तो चेतो। इस दुनिया की भीड़ से तुम्हें कुछ नहीं हासिल होगा, यह तो रेत जैसी है जितनी जल्दी तपती है उतनी ही जल्दी ठंडी पड़ जाती है जो सदा एक-सी रहे, ऐसी निजात्मा की भावना करो, यही शाष्वत प्रभावना है। आचार्यश्री की आहारचर्या श्रीमंत परिवार द्वारा संचालित सोनाबाई आश्रम में लगभग दो दषक से भी ज्यादा सैकड़ों छात्राओ को संरक्षा, सुरक्षा एवं मार्गदर्षन प्रदान करने वाली श्रीमती किरन, संदीप मेडिकल स्टोर वालों के यहां संपन्न हुई।


प्रवचन सभा का संचालन ब्रम्हचारी सुनील भैया, ब्रम्हचारी नितिन भैया एवं सहयोग संकलन अशोक ‘शाकाहार
ने किया।

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