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स्पंदन – स्व 2

locationजयपुरPublished: Oct 29, 2018 06:23:48 pm

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Gulab Kothari

अग्नि बलवान तो है किन्तु सोम के आधार पर। हृदय भाव से ही बल का विकास है। हृदय से उठने वाला बल सत्य कहलाता है। हृदय से उठने वाले सत्य की किरणें बल हैं। एक ही की दो अवस्थाएं हैं-सत्य और बल। सूर्य और किरणें।

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सूर्य अग्निमय तथा चन्द्रमा सोममय है। अग्नि और सोम ही इनके आधार हैं। सोम उत्तर से दक्षिण की ओर तथा अग्नि दक्षिण से उत्तर (ऊपर) की ओर प्रवाहित रहता है। दोनों के योग से ही ऋतुएं बनती हैं। इसी को सम्वत्सर कहा जाता है।
इसी अग्नि-सोम से प्रजा उत्पन्न होती है। वृषा (पुरुष) सृष्टि में अग्नि तत्त्व तथा योषा (स्त्री) सृष्टि में सोम तत्त्व प्रधान रहता है।

अग्नि अन्नाद (भोक्ता) है तथा सोम अन्न (भोग्य) है। अत: सोम ही अग्नि की आत्म-प्रतिष्ठा है। सोम के बिना अग्नि जीवित नहीं रह सकता। न अग्नि के बिना सोम सत्यभाव में बदल सकता है।
सत्य और बल
अग्नि बलवान तो है किन्तु सोम के आधार पर। हृदय भाव से ही बल का विकास है। हृदय से उठने वाला बल सत्य कहलाता है। हृदय से उठने वाले सत्य की किरणें बल हैं। एक ही की दो अवस्थाएं हैं-सत्य और बल। सूर्य और किरणें।
किरणें सदा बाहर की ओर बढ़ती हैं। अत: कार्य किरणें ही करती हैं। सत्य बस आधार रहता है, कार्य नहीं करता। ‘बलं सत्यादोजीय: बलं वाव विज्ञानाद् भूय:।’

अग्नि बलवान है। सत्य अग्नि की प्रधानता के कारण पुरुष बलवान कहलाता है। सोम निर्बल है, ऋत् होने से हृदय शून्य है। ऋत् है तब सत्य नहीं हो सकता। बलवान नहीं हो सकता। सोमतत्त्व (ऋत्) की प्रधानता के कारण ही स्त्री को ‘अबला’ कहा गया है।
पुरुष बलवान्, स्त्री अबला है। पुरुष सत्य भाव है तो स्त्री अनृत भाव। पुरुष आग्नेय है तथा स्त्री सौम्या। पुरुष (अग्नि) भोक्ता है और स्त्री भोग्या। इसी प्रकार पुरुष स्वच्छन्द है तो स्त्री परच्छन्दा नुवर्तिनी। पुरुष अग्नि (अग्रेसर) है और स्त्री सोमयुक्ता (संकोचयुक्ता)
यह सब तो एक पक्ष है। स्त्री ‘अबला’ होते हुए भी उपास्य देवता है। यही स्त्री की महती प्रतिष्ठा है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर देखेंगे कि अबल सोम अन्त: (भीतर में) बलघन ही है। अग्नि भीतर निर्बल है। अन्तर बलवत्ता ही सौम्या स्त्री का वास्तविक स्वरूप है।
इस दृष्टि से पुरुष बाहर बलवान दिखाई पड़ते हुए भी भीतर निर्बल ही है। भीतर की शक्ति ही वास्तविक ‘शक्ति’ कहलाती है। साथ ही बल तो संकोच है, निर्बल विकास (अस्थिरता) है। एक स्थान पर प्रतिष्ठित रहना ही संकोच है। यही संकोच बल की परिभाषा है। निर्बल हाथ फैलाता है। बंध मु_ी सदा प्रहार के लिए तत्पर रहती है।
संकुचित शरीर ही सबल है। संयत-वाणी सबला है। स्खलित वाणी निर्बला है। तब प्रश्न होता है कि स्त्री को अबला क्यों कहा गया है? प्रश्न का उत्तर ‘असत्’ शब्द है। प्राण सत् है। चूंकि प्राण में अन्य प्राण नहीं रहता, अत: प्राण को असत् कह दिया जाता है(शत. ६.१.१.१)।
अग्नि ही रुद्र
दूसरा प्रश्न-क्या बल स्वयं बलवान् हो सकता है? नहीं। जिसके बल रहता है, वह बलवान होता है। इसलिए बलघन सोम को अबला कहा गया है। इस सोम के योग से ही अग्नि बलवान बनता है। जैसे ही सोम का प्रवाह रुका, उसी क्षण अग्नि उत्क्रान्त हो जाता है। अग्नि का सारा शिव भाव रुद्र भाव में बदल जाएगा। शतपथ-५३.१० के अनुसार ‘अग्निर्वा रुद्र:’ अग्नि ही रुद्र है।
रुद्र को संहार का देवता कहा जाता है। रुद्र जब तक शक्ति के साथ हैं, शिव हैं। इनको यदि सोमाहुति न मिले तो अग्नि का स्वरूप नष्ट होकर शुद्ध सोम बन जाएगा। जैसे कि मृतक देह। अग्नि का प्रधान स्थान केन्द्र होता है। अग्नि केन्द्र के चारों ओर विशकलित होता है।
सोम आहुति के कारण अग्नि का यह स्वरूप बना रहता है। किन्तु जब सोम की आहुति बन्द हो जाती है, तब चरम सीमा पर फैलते-फैलते अग्नि का अग्नित्व ही नष्ट हो जाएगा। शेष रह जाएगा सोम का ऋत् भाव। भोक्ता स्वयं भोग्य बन जाता है।
पुरुष अग्नि अवश्य है, किन्तु इसकी प्रतिष्ठा सोम ही है। अन्न से बनने वाली सप्तम धातु सोम (शुक्र) ही है। यह सौम्या शुक्र ही पुरुष का अन्तर आत्मा है जबकि शरीर अग्निप्रधान है।

शुक्र क्षय ही पुरुष नाश का कारण है। श्रुति कहती है-‘ब्रह्मचय्र्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नन।’ इस बलघन शुक्र से ही पुरुष बलवान बना रहता है। किन्तु शुक्र स्वयं बल प्रयोग में असमर्थ है। (स्वयं बल है।) अत: निर्बल है। शरीर बलवान्, आत्मा निर्बल।
इसी शुक्र से आगे मन बनता है। अत: वह भी निर्बल ही होगा। संकल्प के स्थान पर विकल्पों में अटका रहता है। संकल्प के लिए पुरुष को विशेष साधना करनी पड़ती है।

जब पुरुष पुरुष के सामने हो तो शायद अपने संकल्प में सफल हो सके। अपनी बात मनवा सके। किन्तु सौम्यात्मा पुरुष जब आग्नेयी शक्ति-स्त्री के सामने होता है, तब अधिक दुर्दशा का अनुभव करता है।
स्त्री सौम्या है। संकल्प भी शुक्रानुबन्धी मन के कारण सौम्या है। ‘स्त्रिय: सतीस्ता उ पुंस आहु:’ (ऋ. १.१६४.१५) अर्थात् संसार में जितने भी पुरुष हैं-वे अग्नि प्रधान बाह्य शरीर की अपेक्षा भले ही पुरुष कहलाते हों, परन्तु शुक्र प्रधाना आत्म दृष्टि से तो उन्हें स्त्री ही कहना चाहिए। आत्मा ही शरीर से प्रधान है।
अत: आत्मा ही परिचायक कहा जाता है। आग्नेय पुरुष शरीर की प्रतिष्ठा जल (सोम) है।

अत: पृथ्वी स्थानीय शरीर का उपादान अप् तत्व ही है। अर्थात् शरीर पिण्ड में प्राण-भूत दो विभाग हैं। दृश्य भाग भूत है, अदृश्य प्राण है। जब शरीर से आप्य भाग (प्राण) निकल जाता है, शरीर नष्ट हो जाता है।
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