इसकी विस्तृत एवं शास्त्रीय व्याख्या पं. मोतीलाल शास्त्री ने की है-शतपथ ब्राह्मण भाष्य में। आत्मा से शब्द निकलता है-इसका क्या अर्थ है? क्या कोई आत्मा शब्द करने में असमर्थ रहता है? आत्मा षोडश कल है। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र इनमें हृदय प्राण है। अव्यय पुरुष का मन आत्मा का प्रतिनिधि है। मन में कामना उठती है, अर्थ प्राप्ति की, तब मन का आत्मा से योग होता है। शरीर की वैश्वानर अग्नि में क्षोभ उत्पन्न होता है। तब प्राण वायु पर आघात होता है। यह वायु ही उर-कण्ठ-सिर से टकराकर वर्ण बनता है। अत: शब्द आत्मा से ही निकलता है।
पं. मधुसूदन ओझा की ‘पथ्यास्वस्ति’ में इसका विस्तार मिलता है। शब्द का मूल हुआ आत्मा में उत्पन्न कामना। सभी प्राणियों की आत्मा ‘स्व’ ही है। तब इसके साथ अर्थ जोड़ा जाए अथवा तन्त्र, एक ही बात है। स्वार्थ का अर्थ है स्वच्छन्दता अर्थात् अमर्यादित स्वतन्त्रता। किसी तन्त्र या व्यवस्था की मर्यादा में रहने वाला आत्मा ही ‘स्व’ कहलाएगा। तभी शब्द की उत्पत्ति सम्भव है। तन्त्र मर्यादा से वह स्वतन्त्र तथा स्वच्छन्दता से जब आत्म रूप विकृत हो तब वह तन्त्रहीन अथवा परतन्त्र कहलाएगा।
स्व और पर का अर्थ
शास्त्री जी के अनुसार ‘स्वतन्त्र’ और ‘परतन्त्र’ दोनों ही शब्द आत्मा के वाचक नहीं हैं। स्व-तन्त्र में रहने वाला आत्मा ही ‘स्व’ भाव सुरक्षित रख सकेगा। पर-तन्त्र में रहने वाला आत्मा ‘स्व’ को खो बैठेगा। जैसे कर्मचारी वर्ग।
स्वतन्त्र में प्रतिष्ठित आत्मा की कामना मन का संचालन करेगी। पर-तन्त्र में आत्मा-कामना पर मानस-कामना का अधिकार होगा। इन्द्रियों के विषय हावी होंगे। व्यक्ति बाहर की ओर अटका रहता है। अत: ‘पर’ कहलाएगा। आत्मा का नियन्त्रण नहीं रह पाएगा। मन आत्मा पर हावी होगा। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों में ज्ञाता यदि आत्मा का स्व-भाव है, तो ज्ञेय पर-भाव कहा जाएगा। ज्ञेय विषय जड होता है। अनात्म रूप होने से पर-भाव है। आत्मा का श्रेय भाव ‘स्व’ तथा प्रेय भाव ‘पर’ कहलाता है।
प्रकृति को प्रधान कहते हैं। इसी को तन्त्र कहते हैं। इसका बाहरी भाग पंचमहाभूत स्वरूप है तथा भीतरी भाग आत्मा (विश्व संचालन) रूप है। अत: स्व-पर तन्त्र का अर्थ हुआ आत्मा-अनात्मा प्रधान। आत्म भाव पुरुष है, अनात्म भाव विश्व है। स्वयंभू-परमेष्ठी अमृत रूप पुरुष है। चन्द्रमा-पृथिवी रूप मृत्यु रूप विकृति है। मध्य में अमृत-मृत्यु रूप सूर्य प्रकृति है। पुरुष में अव्यय का, विकृति में क्षर का तथा प्रकृति का विकास होता है। इन्हीं को क्रमश: स्व, पर तथा अक्षर तन्त्र कहते हैं। अव्यय का तन्त्र अक्षर है। यदि यही अक्षर क्षर का अनुगामी बन जाता है, तो परतन्त्र बन जाता है। अव्यय आत्मा का अक्षर के माध्यम से क्षर में जुड़ जाना ‘स्वतन्त्र’ है। अक्षर (सूर्य) का तन्त्र अव्यय ही है। इसके स्थान पर क्षर के तन्त्र को स्वीकार कर लेना परतन्त्रता है।
स्वतन्त्र का अर्थ हुआ-आत्मा अक्षर से जुडक़र प्रकृति भाव में रहा और विकृति से सम्बन्ध नहीं बनाया। क्षर भाव से आसक्त नहीं हुआ। तब वह आत्मा ‘स्वतन्त्र’ कहलाया। जब आत्मा विषयों पर आसक्त होकर अक्षर से च्युत हो जाता है, अपने तन्त्र से छूट जाता है।
क्षर तन्त्र उस पर प्रतिष्ठित हो जाता है। इसके लिए अब अक्षर तन्त्र ही ‘पर’ हो गया। आत्मा अब क्षर के नश्वर भाव से जुड़ गया। जो स्व (अक्षर) था, उसे पर (क्षर) बना दिया, एवं तन्त्र को परतन्त्र बना दिया। आत्मा का स्वरूप ‘स्वगर्भित-पर’ हो गया।
गीता में कहा गया-‘आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।’ अनुकूल तन्त्रात्मक आत्मा हमारा मित्र बना रहता है एवं प्रतिकूल तन्त्रागत वही आत्मा हमारा शत्रु बन जाता है। स्वार्थी व्यक्ति सदा परतन्त्र होकर ही जी सकता है। वह तो केवल बाहरी विषयों के जुड़ाव से एक पक्षीय हो जाएगा। क्षर तन्त्र आत्म विरोधी होने से परतन्त्र ही होता है।
स्व और पर का स्वरूप
जिससे स्वरूप की रक्षा हो वह ‘स्व’ तथा जिससे स्वरूप की हानि हो, वह ‘पर’ (शत्रु) कहलाता है। दोनों के मध्य में तन्त्र (अक्षर) शाश्वत रूप से स्थित है। अक्षर के आगे अव्यय है, आलम्बन है। क्षर सदा अक्षर के नीचे तथा मरणधर्मा है। प्रकृत अवस्था में अक्षर सदा अव्यय और क्षर के मध्य समभाव रहता है। जब अक्षर नीचे क्षर भाव की ओर झुकता है तो तन्त्रभाव को छोडक़र परभाव में बदल जाता है। स्व-भाव तो केवल अव्यय में ही सुरक्षित रहता है। तभी अक्षर भी स्वतन्त्र रह सकता है।
क्षर के साथ मिलकर तो अक्षर भी परतन्त्र हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि स्व और पर का स्वरूप तन्त्र अर्थात् अक्षर पर ही प्रतिष्ठित है। अक्षर ‘स्व’ है, तब ही आत्मा भी स्वतन्त्र है। अक्षर के लिए भी अव्यय ‘स्व’ तथा क्षर ‘पर’ कहा जाता है। ‘स्व: (अव्यय) तन्त्रो यस्य स अक्षर:-स्वतन्त्र:-पर: (क्षर) तन्त्रो यस्य स: अक्षर: परतन्त्र।’
जो नश्वर संसार किसी के लिए बन्धन का कारण बनता है, वही किसी उपासक के लिए मुक्ति का कारण भी बन जाता है। यदि पर का अक्षर के द्वारा अव्यय तन्त्र के साथ योग है, तब वही क्षर अक्षर बनता हुआ स्वतन्त्र है। स्वतन्त्र और परतन्त्र दोनों परिस्थितिगत हैं, नियत भाव नहीं हैं।
चाहे पुरुष हो, प्रकृति हो अथवा विकृति। पुरुष प्रकृति के सहयोग से ही स्वतन्त्र है एवं विकृति के योग में परतन्त्र बन जाता है। प्रकृति भी पुरुष के योग से स्वतन्त्र रहती है तथा विकृति के संयोग से परतन्त्र हो जाती है। विकृति तो प्रकृति एवं पुरुष के मार्ग पर चलकर ही स्वतन्त्र रहती है। विकार रूप तो परतन्त्रता ही है।