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स्पंदन – शब्द ब्रह्म-7

locationजयपुरPublished: Sep 21, 2018 02:11:30 pm

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Gulab Kothari

परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी हमारी वाक् का स्वरूप है। भाव क्षेत्र परा क्षेत्र है। अति सूक्ष्म है। इसी को समझने के लिए मंत्रों का सहारा लिया जाता है।

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बिना भाव के कामना नहीं उठती। हर कामना के पीछे कोई भाव होता है। कुछ अच्छा या बुरा करने का, कुछ बनने का। इसी तरह हर ध्वनि के पीछे या साथ भी एक भाव रहता है। शब्द की, ध्वनि की आवश्यकता क्यों पड़ती है। किसी अभिव्यक्ति के लिए। अभिव्यक्ति होती है इच्छा की, कामना की। इच्छा के पीछे कोई कारण रहता है। कोई निमित्त रहता है। कोई संयोग होता है। ऋणानुबंध होता है। यही तो मन को इच्छापूर्ति के लिए प्रेरित करते हैं।
कोई न कोई परिणाम लक्षित होता है। हित अहित का कोई भाव रहता है। यह भाव ही परिणामों की दिशा तय करता है। व्यक्ति को ऊध्र्वगामी या अधोगामी बनाता है। भाव आत्म प्रवृत्त होता है। मन का संचालन करता है। मन और आत्मा को जोड़ता है। भावशून्यता के कारण व्यक्ति को मन ही अपना रूप जान पड़ता है। आत्मा गौण नजर आती है। भाव ही व्यक्ति और ध्वनि का मूल धारक है। दोनों का स्वरूप एक जान पड़ता है। ब्रह्म स्वरूप।
भाव
परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी हमारी वाक् का स्वरूप है। भाव क्षेत्र परा क्षेत्र है। अति सूक्ष्म है। इसी को समझने के लिए मंत्रों का सहारा लिया जाता है। पहले मंत्रों की उच्चारण ध्वनि का अभ्यास किया जाता है। वाचिक जप रूप में। धीरे-धीरे ध्वनि को आत्मसात करने का प्रयत्न किया जाता है। उपांशु रूप में। मानस जप में ध्वनि शरीर का अंग बन जाती है।
प्रयत्न पीछे छूट जाते हैं। कान में पडऩे वाली हर ध्वनि को इस स्तर तक अनुभव किया जा सकता है। ध्यान की लगभग सारी विधियां यहीं आकर मिलती हैं। यहां से आगे सबका मार्ग एक हो जाता है। ध्वनि के आत्मसात होते ही उसके भाव स्पष्ट लगेंगे। घर के किसी पालतू जानवर अथवा पेड़-पौधों से कैसे बातचीत की जा सकती है? शब्द तो वहां काम नहीं आ सकते और ध्वनियां हम समझ नहीं सकते। केवल भावों के सहारे ही अभिव्यक्ति हो सकती है। तभी मित्रता संभव है इनसे।
अबोध बालक के साथ भी तो ऐसे ही व्यवहार किया जाता है। जो मां ध्वनियों को नहीं समझती वह बच्चे की अभिव्यक्ति कैसे समझ सकती है? मातृत्व बोध ही स्त्रियों की सर्वोच्च शक्ति का आधार है। आसानी से भावों तक पहुंच सकती है—ध्वनि के पार। शर्त ये है कि वे शब्दों को न पकड़ें, ध्वनि और भाव तक पहुंचें। नहीं तो बच्चे को कैसे संभाल पाएंगी।
पुरुष के लिए तो यह अत्यन्त कठिन कार्य है। बुद्धिजीवी और तर्क प्रधान होने के कारण बढ़ ही नहीं पाता। इनका मन और भाव क्षेत्र कमजोर होता है। मन के जैसी मिठास बुद्धि में नहीं होती। मन शब्दों में अटका रहता है। अहंकार के कारण अस्तित्व बोध से दूर रहता है। इसके लिए ध्वनियों से भी पार जाना पड़ेगा। मन के भी पार जाना पड़ेगा। मन और आत्मा एक नहीं है। हम एक मानकर जीते हैं। आत्म भाव में जाने के लिए मन को छिटकना आवश्यक है। मन को छिटकाने के लिए मन को ही नाव बनाना पड़ता है। स्त्री की तरह पुरुष को भी अपने नारीत्व का विकास करना होता है। मन में प्रेम, दया, करुणा, वात्सल्य जैसे मधुरभाव विकसित करने पड़ेंगे। मन की इच्छाओं को छोडक़र भाव क्षेत्र में उतरना पड़ेगा। और आत्म भाव में प्रवेश हो जाएगा। भक्ति मार्ग यही है। ध्वनि को भी यदि मानस जप में बदल दें तो वह भी भक्ति भाव से जुडक़र आत्म प्रकाश तक पहुंचा देती है। स्वयं प्रकाश में बदल जाती है।
ध्यान
ध्यान में भी यही सिखाया जाता है। पहले शरीर को साधो ताकि इसके कारण ध्यान भंग न हो। स्थिरता का एक अभ्यास किया जाता है। फिर विचारों के प्रवाह को रोकने का। इसके आगे मनोभाव पर नियंत्रण करना सिखाया जाता है। एक-एक करके हम खाली होते जाते हैं। जो कुछ सीखा या अनुभव किया उसे छोड़ते जाते हैं। शून्य तक पहुंचना होता है। सहज रूप से पहुंचना होता है। प्रयत्न किए बिना।
अभ्यास करते-करते एक स्थिति ऐसी आ जाती है जहां प्रयत्न छूट जाते हैं। शब्द ब्रह्म और अहं ब्रह्मास्मि यहां आकर एक दिखाई पड़ते हैं। इसके पहले नहीं। वैसे भी सृष्टि का मूल तो एक ही है। आगे चलकर सृष्टि दो श्रेणियों में बंट जाती है। अर्थ वाक् और शब्द वाक् रूप में वाक् का विस्तार होता है। शब्द वाक् सरस्वती का क्षेत्र बनता है और अर्थ वाक् लक्ष्मी का। शब्द वाक् से अर्थ वाक् की उत्पत्ति की जा सकती है। वाक् कभी भी नष्ट नहीं होती। ऊर्जा रूप होती है। रूप बदलते हैं। विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार चुका है। एनर्जी और मैटर के अलावा और कुछ है ही नहीं। हम चाहे शरीर को पकडक़र आगे बढ़ें अथवा शब्द को, पहुंचेंगे एक ही जगह। अत: शब्द भी ब्रह्म है और जगत् भी ब्रह्म का ही विवर्त है।
विज्ञान का एक और महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि ध्वनि और प्रकाश भी भिन्न नहीं हैं। ध्वनि की ही भिन्न-भिन्न तरंगों का घनीभूत रूप प्रकाश है। जब कुछ नहीं था-अंधकार था, व्योम था। आकाश की तन्मात्रा नाद होती है अर्थात् वहां नाद भी था। भले ही अनाहत नाद था।
नाद में स्पन्दन होता है। स्पन्दन का नाद होता है। स्पन्दन में गति भी संभव है। स्पन्दन प्राणों अथवा ध्वनि का होता है। इसी स्पन्दन से प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है। यह ध्वनि अथवा प्रकाश घनीभूत होकर भिन्न-भिन्न स्वरूप धारण करता है। यहां तक कि हमारा शरीर भी घनीभूत प्रकाश कहा जा सकता है। इसी शरीर के चारों ओर हमारा प्रकाश-आभा मण्डल-फैला रहता है।
भक्ति भाव में यही शरीर तरल-विरल भाव में आता है। मंत्रों के स्पन्दन से भी शरीर और मन प्रभावित होते हैं। प्रकाश का फैलाव बढ़ता जाता है। एक स्थिति में जाकर मूल प्रकाश में लीन हो जाता है। ध्वनि से शब्द और शरीर रचना सिद्ध कर देती है कि दोनों ही ब्रह्म स्वरूप हैं।

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