टेलीविजन, टेलीफोन, कार, फ्रिज आदि सारी सुविधाएं सुख की दृष्टि से जुटाई जाती हैं। इसी सुख की अनुभूति नशे का आधार भी है। जीवन के अनेक झंझट, खींचतान का आधार भी सुख की तलाश ही है। व्यक्ति सारे तनाव इसी सुख की तलाश में सहन करता है। पूरी उम्र पापड़ बेलता है, चिन्तित रहता है वह सुख की तलाश में। फिर भी क्या कारण है कि वह सुखी नहीं हो पाता?
एक छोटा-सा कारण है— सुख की परिभाषा। व्यक्ति यदि सुख को तलाशने से पहले अपने सुख को परिभाषित कर ले कि वह सुख किसको मानता है, तो समस्या का समाधान हो जाएगा। उसे पता रहेगा कि कौन-सा कार्य उसे सुखी कर सकेगा और कौन-सा नहीं। किस कार्य से सुख को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। क्रमश: दु:ख के मार्ग स्वत: बन्द होने लग जाएंगे। उसकी सुख की धारणा समय के साथ पुष्ट होती चली जाएगी।
सुख का स्वरूप
सुख की आज अनेक परिभाषाएं हैं। शरीर का सुख आज सर्वोपरि है। पहले भी रहा है, किन्तु ‘निरोगी काया’ तक। आज उसका विकृत स्वरूप हमारे सामने है। बुद्धि-विलास का सुख भी ऐसा ही है। तर्क-वितर्क में व्यक्ति सदा उलझा रहता है और अपनी ही बात को सही मानने का उसका हठ उसे सुखी नहीं होने देता। सुख को परिभाषित करने से पूर्व इतना तो स्पष्ट होना ही चाहिए कि इस सुख का आभास किसे होता है- शरीर को, बुद्धि को अथवा मन को? क्या इसके आगे भी आत्मा सुख का अनुभव करती है? व्यवहार में मन ही आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, वही सुख की अनुभूति का केन्द्र है।
सुख हमें हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है। मन तक यह सुख इन्द्रियां पहुंचाती हैं। मन ही सुखी अथवा दु:खी होता है। मन इन्द्रियों का राजा है। मन के इशारे पर ही इन्द्रियां कार्य करती हैं।
मन किसी को देखकर सुखी हो, तो आखें उसे देखती रहती हैं। कुछ सुनकर मन प्रसन्न होता है, तो कान सुनते ही रहते हैं। चिन्तन-मनन से शीघ्र ही व्यक्ति को पता चल सकता है कि किस कारण से उसे सुख मिलता है और किससे दु:ख के दरिया में गोता खाना पड़ता है। मन आत्मा से जुड़ा है और आत्मा के साथ ईश्वर की सत्ता जुड़ी है, अत: मन का मूल स्वभाव आनन्द है। यह सुख से भी ऊपर की स्थिति है। मन को इसके सिवा कुछ अच्छा नहीं लग सकता। सुख और दु:ख साथ-साथ चलते हैं। यहां शान्ति की अवधारणा जीवन में समन्वय स्थापित करती है। आनन्द और शान्ति मिलकर शान्तानाद (नन्द) बनते हैं।
मन ही सुख-दु:ख की अनुभूति का केन्द्र है और उसे पाने के साधन हैं शरीर और बुद्धि। शरीर और बुद्धि आज साध्य बन गए, साधन नहीं रहे। अत: मन भी जीवन से छिटकता जा रहा है। व्यक्ति शरीर के रख-रखाव और बुद्धि की सामथ्र्य बढ़ाने के लिए सदा जुटा रहता है। शिक्षा का भी सारा जोर इन्हीं पर है। जबकि, वास्तविकता यह है कि इनका तो स्वस्थ व सात्विक रहना ही पर्याप्त है। मन में इच्छा उठते ही ये दोनों उसे पूरी करने में जुट जाएं। सदा स्वस्थ रहें। इच्छापूर्ति पर भी नियंत्रण रहे। इनके रुग्ण होने से कोई इच्छा अधूरी न रह जाए, अत: सुख पाने के लिए हमें शरीर और बुद्धि से हटकर पहले मन के धरातल पर चिन्तन करना होगा।
सुख की अनुभूति
हमारे जीवन के लक्ष्य मन के साथ जुड़े हैं। समाज में हमारी पहचान भी मन के साथ जुड़ी है, अध्यात्म के धरातल का आधार हमारा मन ही है। क्या पाना चाहता है हमारा मन, सुखी रहने के लिए? कहां पहुंचना चाहता है इस जीवनकाल में? इन प्रश्नों में सुख-दु:ख के सभी धरातल दिखाई देंगे। क्या-क्या व्यक्ति को करना चाहिए और क्या छोड़ देना चाहिए, वह आसानी से तय कर सकता है।
फिर प्रश्न आता है कि सुख की पहचान कैसे हो? सुख की पहचान नहीं, अनुभूति हो सकती है। कार्य का परिणाम ही इसका वाचक हो सकता है। जिस कार्य की परिणति सुख में हो, वही अच्छा है, अन्य नहीं। कोई भी कार्य करते समय हमें सुख का आभास हो और परिणाम में दु:ख मिले तो वह कार्य करने योग्य नहीं। क्षणिक सुख और स्थाई सुख में भेद करना भी आवश्यक है। सुख वही कहा जाएगा जो कार्य करते समय भी महसूस हो, कार्य की समाप्ति तक प्रसन्नता दे और जिसके परिणाम भी सुखद हों।
किसी भी कार्य से यदि दु:ख पैदा होगा तो तनाव भी पैदा होगा। सुख सभी प्रकार के तनावों से मुक्त होता है। यह व्यक्ति को शान्ति में स्थापित करता है। विश्व में सभी धर्मों का पहला आधार शान्ति है। व्यक्ति को सभी कंटीले मार्गों से दूर रखने का प्रयास धर्मशास्त्र करते हैं। व्यक्ति स्व-विवेक के अहंकार से दु:ख की ओर दौड़ता है और सुख की तलाश करता रहता है। जो अपने सुख को परिभाषित कर लेता है, उसका जीवन वसन्त हो गया समझो!