जीवन का लक्ष्य
जब व्यक्ति अपने जीवन का उद्देश्य तय कर लेता है तथा जब वह एक लक्ष्य बनाकर कार्य करता है तो उसके भाव भी उसी के अनुरूप ढलने लगते हैं। व्यक्ति उसी प्रकार के भावों का अभ्यस्त होने लग जाता है। मन में उठने वाली इच्छा को वह अपने भावों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है।
जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य नहीं बन पाता, उसके लिए इच्छा का महत्त्व ही नहीं होता। वह इच्छा का जीवन-विकास में सदुपयोग नहीं कर सकता। प्रतिबिम्बित मन चञ्चल होता है। वह दिन में अनेक बार बदलता है, मरता है, नया पैदा होता है, हर इच्छा के साथ। वातावरण मन को बदलने में सहायक होता है। वातावरण के अनुरूप ही इच्छा का स्वरूप बन जाता है।
व्यक्ति हवा के झोंके के साथ इधर-उधर डोलता है। एक दिशा में नहीं चल सकता। इसके अलावा, जीवन परिवर्तनशील भी होता है। परिवर्तन सृष्टि का अंग है। सृष्टि स्वयं परिवर्तनशील है। इसी के साथ उसके मन में परिवर्तन आते हैं। जीवनचर्या में परिवर्तन आते हैं। कामकाज के ढंग में परिवर्तन आते हैं। आज तो परिवर्तन की गति इतनी बढ़ गई है कि व्यक्ति स्वयं को इस गति से बदलने में असहाय पाता है। इस बात का भय हो गया है कि यदि समय के साथ नहीं बदल पाया तो क्या होगा।
हर परिस्थिति में व्यक्ति की भावभूमि ही निर्णायक सिद्ध होती है। उसी के अनुरूप बुद्धि कार्य करती है, शरीर चलता है और कार्यों का निष्पादन होता है। भाव हमारे चिन्तन का आधार है। हमें अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त हो और अप्रिय वस्तु से छुटकारा प्राप्त कर सकें, इसी ऊहापोह में व्यक्ति लगा रहता है। उसके चिन्तन का भी यही आधार होता है। प्रिय वस्तु हाथ से छूटे नहीं, यह भी चिन्ता रहती है। व्यवहार में सब कुछ असम्भव है। प्रिय हो अथवा अप्रिय, सदा उसका योग बना ही रहे, यह सम्भव नहीं है। सब संयोग से चलता है। हम प्रिय के जाने से भी दु:खी होते हैं और अप्रिय के आने से भी।
सकारात्मक भाव
प्रकृति, आकृति और अहंकृति एक साथ ही उत्पन्न होती हैं। एक-दूसरी के अनुरूप होती हैं। व्यक्ति की शिक्षा का उद्देश्य होता है इनको समझना और उसी के अनुरूप चिन्तन करना। इनमें जो ग्राह्यï हो, उन्हें विकसित करना और जो अवांछनीय हों, उन्हें त्याग देना। जीवन को दिशा देने का कार्य यहीं से शुरू हो जाता है। एक बार भाव-क्रिया समझ में आ जाए और एक दिशा तय हो जाए तो बुद्धि और शरीर वैसे ही कार्य करने लगते हैं। शुद्ध सकारात्मक भाव वाले व्यक्ति का चेहरा चमकता हुआ दिखाई पड़ता है। तेजस्वी लगता है। उसका सान्निध्य सुख देता है। नकारात्मक भावभूमि से चेहरे पर कालिमा छा जाती है, आकृति क्रूर दिखाई पड़ती है। भय प्रतीत होता है। हम कार्य कुछ भी करें, किसी भी स्तर का जीवनयापन करें, भावों की सकारात्मकता से ही हमें सुख की अनुभूति हो सकती है।
सकारात्मकता की एक विशेषता यह भी है कि इसमें व्यापकता का भाव होता है। संकुचन भाव नहीं होता, स्वार्थ भाव भी नगण्य होता है। विश्व-मैत्री अथवा प्राणि-मात्र के प्रति करुणा का भाव विकसित हो जाता है। इसका लाभ यह होता है कि व्यक्ति प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाता है। प्रतिक्रिया अनेक तनावों को जन्म देती है। व्यक्ति अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प में उलझा रहता है। वास्तविकता से दूर भी हो जाता है। क्रिया हो और प्रतिक्रिया न हो तो यह तनाव से मुक्ति ही है। मैत्रीपूर्ण भाव व्यक्ति को सृष्टि के साथ जोड़े रखता है। वह स्वयं को कभी अकेला महसूस नहीं करता। सदा अप्रमत्त रहता है। प्रतिक्रिया न होने से शान्त होने लगता है। वह धीरे-धीरे मितभाषी और मिताहारी बन जाता है। शक्ति-संचय करता है। शक्ति का उपयोग जनकल्याण में करता है। उसके उत्थान का मार्ग सदा प्रशस्त रहता है। व्यक्ति वर्तमान में जीना सीख लेता है। न उसे स्मृति के जाल में अटकना पड़ता है और न ही कल्पना लोक के स्वप्न आते हैं। हर कठिन कार्य सरलता से हो जाता है।
नकारात्मक भाव
नकारात्मक भाव अहितकारी भी होते हैं और हिंसकवृत्ति वाले भी। व्यक्ति करने से पूर्व भी चिन्तित रहता है, करते समय भी चिन्तित रहता है और करने के बाद भी चिन्ता-मुक्त नहीं हो पाता। नकारात्मक भाव व्यक्ति को आशंकाओं से इतने ग्रस्त रखते हैं कि वह कुछ शुरू करने से पहले ही ठिठक जाता है। न सफलता, न सुख। अत: यदि नकारात्मक भाव आ भी जाएं तो उन पर विचार किए बिना दूसरे विषय को पकड़ लेना चाहिए। नकारात्मक भावों का कभी पोषण नहीं करना चाहिए। कोई भी कार्य, जिसमें ऐसे भावों का पोषण हो, त्याग देना चाहिए।
आज टेलीविजन पर आने वाले अपराध भाव तथा सिनेमा से प्रसारित नकारात्मक भावों से समाज त्रस्त है। निरन्तर इनका पोषण हो रहा है। अखबार भी धीरे-धीरे इस ओर अग्रसर हैं। किसी को इसका आभास ही नहीं है कि धीमे जहर की तरह इस नकारात्मकता का प्रभाव मानवता पर कितना पड़ेगा! ये नकारात्मक भाव ही तो हैं, जो आगे चलकर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियों को जन्म देते हैं।