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गायत्री-2

Published: Oct 08, 2017 12:44:59 pm

Submitted by:

Gulab Kothari

एक प्रकाश रूप है, एक अन्धकार (काला) रूप है। अन्धकार, कृष्णवर्ण ज्योतिर्मय तत्त्व है, इसमें ज्योति फूटती है

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तत्सवितुर्वरेण्यं के संदर्भ में उससे ऊपर सविता है। सूर्य को जो सविता नाम दिया जाता है वह प्रतिबिम्बात्मक रूप में ही दिया जाता है। क्योंकि सविता नाम वैदिक परिभाषा के क्रम में परमेष्ठी मण्डल के पांच उपग्रहों में गिनाया गया है। शतपथ ब्राह्मण में एक ग्रह-उपग्रह (अतिग्रह) भाव की विवेचना आई है। ग्रह कहते हैं प्रधान को, उपग्रह कहते हैं गौण को। वहां पर सत्यलोक से चली हुई ज्ञानमयी धारा का परमेष्ठी मण्डल की सोममयी धारा से सम्मिश्रण होता है। यह सम्मिश्रण युगलतत्त्व में जुड़ कर अद्वैत भाव ले लेता है। एक प्रकाश रूप है, एक अन्धकार (काला) रूप है। अन्धकार, कृष्णवर्ण ज्योतिर्मय तत्त्व है, इसमें ज्योति फूटती है। कृष्ण को अन्धकारमय कहने का तात्पर्य बिल्कुल अन्धेरा हो रहा हो ऐसा नहीं है, उसमें सब कुछ दिखाई देता है।
अब है ‘सवितुर्वरेण्यं’। यह सविता कहां है, जिसका वरेण्यभाव बताया जा रहा है। इसे समझने के लिए प्रधान ग्रह हुए राधा-कृष्ण युगल। उनके पांच उपग्रह-धरुण (वरुण), सविता, ब्रह्मणस्पति, ब्रहस्पति और शनि के बाद ही सूर्य का निर्माण होगा। शनि सूर्य से बहुत ऊपर है।
क्षीर सागर
धरुण को पुराणों में क्षीर सागर कहा गया है। वेद मन्त्रों में उसकी लम्बी व्याख्या हुई है: ‘त एते पय:समुद्रा:। त एते दधिसमुद्रा:। त एते मधुसमुद्रा:। त एते घृतसमुद्रा:। त एते इक्षुसमुद्रा:।’

हमारे पास भी सागर है-वह क्षार सागर है। सूर्य से ऊपर का सागर क्षीर सागर है। क्षीर सागर के पहले उपग्रह के बाद दूसरा नम्बर आता है सविता का। सविता के लिए लिखा गया है- सविता ही सारी सृष्टि का मूलाधार है सारी सृष्टि का प्रसव सविता से ही हुआ करता है, जिसे हम आधुनिक भाषा में विद्युत् शक्ति कहते हैं वही सविता है। विद्युत् में ‘निगेटिव’ तथा ‘पॉजिटिव’ दो तत्त्व होते हैं। ये ही सविता के युगल तत्त्व हैं। सविता तत्त्व के लिए ही गायत्री संकेत कर रही है- ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ यहां सविता ही महत्वपूर्ण है।
गायत्री के जरिए जिस तत्त्व को पकडऩे की कोशिश की जा रही है वह सविता का भी वरेण्य या पूज्यनीय है। उपग्रह रूप से सविता तत्त्व है जिसे सारे संसार का प्रसव करने वाला महाशक्तिमान तत्त्व बताया गया है। सविता जो वरेण्य है वह लक्षभूत् तत्त्व है। कहते हैं ‘भर्गाेदेवस्य धीमहि’-अपने सूर्य की ओर दृष्टि कर के हम सूर्य को नहीं देख पाते। ऐसे हजारों सूर्य एकत्र हो जाएं, इतना तेज है वहां पर-इसलिए उसे ‘भर्ग’ कहा जा रहा है। उसे चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। वही भर्गदेव है युगल तत्त्व, गायत्री का मूल स्रोत, अग्नि-सोममय युगल तत्त्व। इसके एक-एक कण में से निकलकर सैकड़ों ब्रह्माण्ड बनते जा रहे हैं। वेद मन्त्र के अनुसार जहां विशाल अग्नि जल रहा है जिसमें से अग्नि के कण निकल निकल कर उचटते जा रहे हैं-एक-एक कण रूप में। उसमें से अनन्त ब्रह्माण्ड निकलते जा रहे हैं-उसका ध्यान किया जा रहा है। ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’-ध्यान करते हैं। प्रत्यक्ष तो उसको देख नहीं सकते। जब सूर्य को नहीं देख सकते तो उसको कहां से देख सकेंगे इसलिए उसका ध्यान मात्र किया जा सकता है।
भर्गोदेव की प्राप्ति
‘धियो योन: प्रचोदयात्’ वह हमारी बुद्धि को प्रेरणा करे। संसार में बिना बुद्धि के भी क्या कोई कार्य होता है? सारा संसार बुद्धि के जरिए ही तो चल रहा है। फिर ‘धियो योन: प्रचोदयात्’ का अर्थ यह है कि जिस बुद्धि के द्वारा सारा संसार चल रहा है वह बुद्धि त्रिगुण में फंसी हुई है। लेकिन जो युगल तत्त्व-अद्वैत बताया है जिसमें सारी शक्तियों का भण्डार भरा हुआ है, जहां अमृतमयी शक्ति की वर्षा हो रही है, उस अमृतमयी शक्ति की वर्षा के लिए इसे त्रिगुण से बाहर निकलना होगा।
त्रैगुण्यमयी बुद्धि के द्वारा ‘भर्गोदेव’ की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसलिए गीता के उपदेश के पहले अर्जुन से कहा जा रहा है ‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’ तब मेरी बात को समझ सकेगा। त्रैगुण्य में तो घूमता ही रहेगा। इसलिए प्रार्थना की जा रही है-‘धियो योन: प्रचोदयात्’। हमारी इस बुद्धि को जो त्रैगुण्य में फंसी हुई है उसमें से निकलकर वहां के लिए प्रेरणा करिए कि वह ‘भर्गोदेव’ की ओर जा सके। इस बुद्धि का नाम प्रज्ञा है। प्राज्ञ नाम इन्द्र का है और इन्द्र युगलतत्त्व से जुड़ा हुआ है-इसलिए हमारा अन्तिम पुल (सेतु) इन्द्र है। त्रिगुण के चक्कर से बाहर आई हुई प्रज्ञा बुद्धि ही हमें भर्गोदेव की ओर ले जा सकती है। वह भर्ग देव साक्षात् राधा-कृष्ण युगल तत्त्व अद्वैत है। युगल तत्त्व को कभी हटाया नहीं जा सकता। गायत्री हमें इसी अग्नि सोममय युगल तत्त्व का ध्यान करने को प्रेरित करती है जिसे चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता और जो सभी ब्रह्माण्डों का शक्ति स्रोत है।

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