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विचार मंथन : क्रोध का भोजन विवेक है, इससे बचके रहो, विवेक के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है- स्वामी दयानन्द सरस्वती

locationभोपालPublished: Sep 21, 2018 03:57:35 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

क्रोध का भोजन विवेक है, इससे बचके रहो, विवेक के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है-
स्वामी दयानन्द सरस्वती

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विचार मंथन : क्रोध का भोजन विवेक है, इससे बचके रहो, विवेक के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है- स्वामी दयानन्द सरस्वती

ये ‘शरीर’ ‘नश्वर’ है, हमे इस शरीर के जरीए सिर्फ एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है । वेदों मे वर्णित सार का पान करनेवाले ही ये जान सकते हैं कि ‘जिन्दगी’ का मूल बिन्दु क्या है । क्रोध का भोजन ‘विवेक’ है, अतः इससे बचके रहना चाहिए । क्योंकि ‘विवेक’ नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है । अहंकार’ एक मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाती है, जब वह ‘आत्मबल’ और ‘आत्मज्ञान’ को खो देता है । मानव’ जीवन में ‘तृष्णा’ और ‘लालसा’ है, और ये दुखः के मूल कारण है ।

 

क्षमा’ करना सबके बस की बात नहीं, क्योंकी ये मनुष्य को बहुत बङा बना देता है । काम’ मनुष्य के ‘विवेक’ को भरमा कर उसे पतन के मार्ग पर ले जाता है । लोभ वो अवगुण है, जो दिन प्रति दिन तब तक बढता ही जाता है, जब तक मनुष्य का विनाश ना कर दे । मोह एक अत्यंन्त विस्मित जाल है, जो बाहर से अति सुन्दर और अन्दर से अत्यंन्त कष्टकारी है; जो इसमे फँसा वो पुरी तरह उलझ ही गया । ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए । क्योंकि ये ‘मनुष्य’ को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है ।

 

मद ‘मनुष्य की वो स्थिति या दिशा’ है, जिसमे वह अपने ‘मूल कर्तव्य’ से भटक कर ‘विनाश’ की ओर चला जाता है । संस्कार ही ‘मानव’ के ‘आचरण’ का नीव होता है, जितने गहरे ‘संस्कार’ होते हैं, उतना ही ‘अडिग’ मनुष्य अपने ‘कर्तव्य’ पर, अपने ‘धर्म’ पर, ‘सत्य’ पर और ‘न्याय’ पर होता है । अगर ‘मनुष्य’ का मन ‘शाँन्त’ है, ‘चित्त’ प्रसन्न है, ह्रदय ‘हर्षित’ है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का ‘फल’ है । जिस ‘मनुष्य’ में ‘संतुष्टि’ के ‘अंकुर’ फुट गये हों, वो ‘संसार’ के ‘सुखी’ मनुष्यों मे गिना जाता है । यश और ‘कीर्ति’ ऐसी ‘विभूतियाँ’ है, जो मनुष्य को ‘संसार’ के माया जाल से निकलने मे सबसे बङे ‘अवरोधक’ होते है ।

 

जब ‘मनुष्य’ अपने ‘क्रोध’ पर विजय पा ले, ‘काम’ को काबू मे कर ले, ‘यश’ की इच्छा को त्याग दे, ‘माया’ जाल से विरक्त हो जाये, तब उसमे जो “दिव्य विभुतियाँ “आती है । उसे ही “कुण्डिलनी शक्ति” कहते है । आत्मा, ‘परमात्मा’ का एक अंश है, जिसे हम अपने ‘कर्मों’ से ‘गति’ प्रदान करते है । फिर ‘आत्मा’ हमारी ‘दशा’ तय करती है । मानव को अपने पल-पल को ‘आत्मचिन्तन’ मे लगाना चाहिए, क्योकी हर क्षण हम ‘परमेश्वर’ द्वार दिया गया ‘समय’ खो रहे है । मनुष्य की ‘विद्या उसका अस्त्र’, ‘धर्म उसका रथ’, ‘सत्य उसका सारथी’ और ‘भक्ति रथ के घोङे होते है । इस ‘नश्वर शरीर’ से ‘प्रेम’ करने के बजाय हमे ‘परमेश्वर’ से प्रेम करना चाहिए, ‘सत्य और धर्म, से प्रेम करना चाहिए; क्योकी ये ‘नश्वर’ नही हैं ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती

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