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विचार मंथन : ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी जिसकी वृत्तियां मेरी तप साधना में विध्नकारी न हों- संत वामन पण्डित

locationभोपालPublished: Oct 14, 2019 05:57:22 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

Daily Thought Vichar Manthan : ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी जिसकी वृत्तियां मेरी तप साधना में विध्नकारी न हों- संत वामन पण्डित

विचार मंथन : ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी जिसकी वृत्तियां मेरी तप साधना में विध्नकारी न हों- संत वामन पण्डित

विचार मंथन : ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी जिसकी वृत्तियां मेरी तप साधना में विध्नकारी न हों- संत वामन पण्डित

महाराष्ट्र के संत वामन पण्डित समर्थ गुरु रामदास के समकालीन थे। इनका जन्म बीजापुर में हुआ था एवं विद्याध्ययन काशी में। काशी में रहते ही भगवान् विश्वनाथ की कृपा से इनकी साधना रूचि तीव्र हुई। परन्तु साधना की तीव्र इच्छा के बावजूद इनका संकल्प बार- बार टूट जाता था। मन भी सदा अशान्त रहता। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? कई बार तो ये अपनी स्थिति से इतना खिन्न हो जाते कि अंतस् हताशा से भर जाता।

 

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मन सोचता कि जो जीवन उद्देश्य प्राप्ति में निरर्थक है, उसे रखकर ही क्या करें। इस निराशा के कुहासे में कोई मार्ग न सूझता था। जप तो करते, पर मन न लगता, साधना बार- बार भंग हो जाती। लिए गये संकल्प दीर्धकाल न चल पाते। एक- दो दिन में ही इनकी इतिश्री हो जाती। कुछ प्रारब्ध भी विपरीत था और कुछ निराशा का असर इनका शरीर भी रोगी रहने लगा। आखिर एक दिन इनका धैर्य विचलित हो गया और इन्होंने सोचा कि आज अपने आपको माँ गंगा में समर्पित कर देंगे।

 

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इस निश्चय के साथ ही वे गंगा के मणिकर्णिका घाट पर आ विराजे। बस, अंधकार की प्रतीक्षा थी कि अंधेरा हो और चुपके से देह का विसर्जन कर दें। अपने इन चिंतन में डूबे वे भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे- हे प्रभो मैं चाहकर भी इस देह से तप न कर सका। हे प्रभु ! अगले जन्म में ऐसा शरीर देने की कृपा करना, जो साधना करने में समर्थ हो। ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी जिसकी वृत्तियां तप में विध्नकारी न हों। श्री वामन पण्डित अपनी प्रार्थना के इन्हीं भावों में लीन थे। उनकी आंखों से निरन्तर अश्रुपात हो रहा था। सूर्यास्त कब अंधेरे में बदल गया, उन्हें पता ही न चला। उनकी चेत तो तब आया, जब एक वृद्ध संन्यासी ने उन्हें सचेत किया।

 

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उन संन्यासी महाराज के चेताने से इनकी आंखें खुलीं। आंखें खुलने पर इन्होंने देखा कि उन वयोवृद्ध संन्यासी का दाया हाथ इनके सिर पर था और वे कह रहे थे कि धैर्य रखो वत्स साधना में बाधाएं आना स्वाभाविक है, पर तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें बीजमंत्र का उपदेश देता हूं। इसका नियमित जप करो। परन्तु यह जप तुम्हें कुश के आसन पर बैठकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना होगा। इस तरह से जप करने से न केवल तुम्हें शान्ति मिलेगी, बल्कि ज्ञान की प्राप्ति भी होगी। श्री वामन पण्डित ने उन संन्यासी महाराज के निर्देश के अनुसार साधना प्रारम्भ की। शीघ्र ही उनकी साधना सिद्धि में बदल गयी। उन्होंने अध्यात्म तत्त्व पर अनेक ग्रंथों का सृजन किया। अंतस् के सभी विक्षेप स्वतः ही गहन शान्ति में बदल गये। उन्हें साधना के उपचार की महत्ता के साथ गुरू के महत्त्व का बोध हो गया।

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