संत ने अधीरता से कहा- तुम इतनी महान संत होकर यह कैसे कह सकती हो कि शैतान से घृणा मत करो, शैतान तो इंसान का दुश्मन होता है । इस पर राबिया ने कहा- पहले मैं भी यही सोचती थी कि शैतान से घृणा करो । लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ नहीं सकी थी । लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी, तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं । मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है । संत ने पूछा- “क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें ।
राबिया बोली- प्रेम किया नहीं जाता, प्रेम तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है । प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी । हम सबकी एक ही तकलीफ है । हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता । यह कोई नहीं सोचता कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है, यह देने की चीज है । हम प्रेम देते हैं । यदि शैतान से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा ।
संत ने कहा- “अब समझा, राबिया! तुमने उस पंक्ति को काट कर ठीक ही किया है । दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का अहंकार भरा है । इसलिए हम प्रेम नहीं करते, प्रेम करने का नाटक करते हैं । यही कारण है कि संसार में नफरत और द्वेष फैलता नजर आता । वास्तव में प्रेम की परिभाषा ईश्वर की परिभाषा से अलग नहीं है । दोनो ही देते हैं बदले में बिना कुछ लिये। ईश्वर, माता-पिता, प्रकृति सभी बिना हमसे कुछ पाने की आशा किये हमें देते हैं, और यह इंतजार करते रहते हैं कि; हम कब उनसे और अधिक पाने के योग्य स्वयं को साबित करेंगे और वे हमें और अधिक दे सकेंगे । प्रेम को जानना है तो पेडों और फूलों को देखिये तोडे और काटे जाने की शिकायत तक नहीं बस देने में लगे हैं ।