जो लोग प्रत्यक्ष में पुण्यात्मा दिखाई देते हैं, वे भी बड़ी-बड़ी विपत्तियों में फँसते देखे गये हैं । सतयुग में भी विपत्ति के अवसर आते रहते थे । यह कौन जानता है कि किस मनुष्य पर किस समय कौन विपत्ति आ पड़े । इसलिए दूसरों की विपत्ति में सहायक होना ही कर्त्तव्य है । यदि कोई सहायता करने में किसी कारणवश समर्थ न हो तो भी विपत्तिग्रस्त के प्रति सहानुभूति तो होनी ही चाहिए ।
विचारों का परिष्कार एवं प्रसार करके आप मनुष्य से महामनुष्य, दिव्य मनुष्य और यहाँ तक ईश्वरत्त्व तक प्राप्त कर सकते हैं । इस उपलब्धि में आड़े आने के लिए कोई अवरोध संसार में नहीं। यदि कोई अवरोध हो सकता है, तो वह स्वयं का आलस्य, प्रमाद, असंमय अथवा आत्म अवज्ञा का भाव। इस अनंत शक्ति का द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है और यह परमार्थ का पुण्य पथ सबके लिए प्रशस्त है । अब कोई उस पर चले या न चले यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है ।
कठिनाइयों को उनसे दूर भाग कर, घबराकर दूर नहीं किया जा सकता । उनका खुलकर सामना करना ही बचने का सरल रास्ता है । प्रसन्नता के साथ कठिनाइयों का वरण करना आंतरिक मानसिक शक्तियों के विकसित होने का राजमार्ग है । संसार के अधिकांश महापुरुषों ने कठिनाइयों का स्वागत करके ही जीवन में महानता प्राप्त की है ।