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विचार मंथन : समाज सेवक जितना सहृदय और सच्चा होता है लोग उसे उतना ही चाहते हैं, चाहे उसकी योग्यता कम ही क्यों न हो- महात्मा गांधी

locationभोपालPublished: Jul 18, 2019 02:11:48 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

daily thought vichar manthan: जब तक तुम्हारे भीतर त्याग और लोक-सेवा का भाव अक्षुण्ण है, तब तक अपने धर्म और अपनी संस्कृति को कोई दबाकर नहीं रख सकेगा।

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विचार मंथन : समाज सेवक जितना सहृदय और सच्चा होता है लोग उसे उतना ही चाहते हैं, चाहे उसकी योग्यता कम ही क्यों न हो- महात्मा गांधी

कटक (उडीसा) के समीप एक गांव में एक सभा का आयोजन किया गया जिसमें हजारों संभ्रांत नागरिक और आदिवासी एकत्रित थे। महात्मा गांधी को हिंदी में भाषण का अभ्यास था, किंतु इस आशंका से कि कही ऐसा न हो यह लोग हिंदी न समझ पायें उडिया अनुवाद का प्रबंध कर लिया गया था। भाषण कुछ देर ही चला था कि भीड़ ने आग्रह किया गांधी जी आप हिंदी में ही भाषण करे। सीधी-सच्ची बातें जो हृदय तक पहुंचती हैं, उनके लिए बनावट और शब्द विन्यास की क्या आवश्यकता आपकी सरल भाषा में जो माधुर्य छलकता है उसी से काम चल जाता है, दोहरा समय लगाने की आवश्यकता नहीं।

 

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गांधी जी की सत्योन्मुख आत्मा प्रफुल्ल हो उठी। उन्होंने अनुभव किया कि सत्य और निश्छल अंत:करण का मार्गदर्शन भाषा-प्रान्त के भेदभाव से कितने परे होते है ? आत्मा बुद्धि से नहीं हृदय से पहचानी जाती है। समाज सेवक जितना सहृदय और सच्चा होता है लोग उसे उतना ही चाहते हैं, फिर चाहे उसकी योग्यता नगण्य-सी क्यों न हो। आत्मिक तेजस्विता ही लोक-सेवा की सच्ची योग्यता है- यह मानकर वे भाषण हिंदी में करने लगे। लोगों को भ्रम था कि गांधी जी की वाणी उतना प्रभावित नही कर सकेगी पर उनकी भाव विह्वलता के साथ सब भाव-विह्वल होते गए। सामाजिक विषमता, राष्ट्रोद्धार और दलित वर्ग के उत्थान के लिए उनका एक-एक आग्रह श्रोताओं के हृदय में बैठता चला गया।

 

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भाषण समाप्त हुआ तो गाँधी जी ने कहा- ”आप लोगों से हरिजन फंड के लिये कुछ धन मिलना चाहिए। हमारी सीधी सादी सामाजिक आवश्यकताएं आप सबके पुण्य सहयोग से पूरी होनी है।” गांधी जी के ऐसा कहते ही रुपये-पैसों की बौछार होने लगी, जिसके पास जो कुछ था देता चला गया। एक आदिवासी लड़का भी उस सभा में उपस्थित था। अबोध बालक, पर आवश्यकता को समझने वाला बालक। जेब में हाथ डाला तो हाथ सीधा पार गया। एक भी पैसा तो उसके पास न था जो बापू की झोली में डाल देता किंतु भावनाओं का आवेग भी तो उसके संभाले नहीं संभल सका। जब सभी लोग लोक-मंगल के लिए अपने श्रद्धा-सुमन भेंट किए जा रहे हों, वह बालक भी चुप कैसे रह सकता था?

 

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भीड को पार कर घर की ओर भागता हुआ गया और एक कपड़े मे छुपाए कोई वस्तु लेकर फिर दौडकर लौट आया। गांधी जी के समीप पहुंचकर उसने वह वस्तु गांधी जी के हाथ मे सौंप दी। गांधी ने कपड़ा हटाकर देखा-बडा-सा गोल-मटोल काशीफल था। गांधी जी ने उसे स्वीकार कर लिया। उस बच्चे की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा-कहां से लाए यह काशीफल? ”मेरे छप्पर में लगा था बापू।” लडके ने सरल भाव से कहा-हमने अपने दरवाजे पर इसकी बेल लगाई है, उसका ही फल है और तो मेरे पास कुछ नहीं है, ऐसा कहते हुए उसने दोनो जेबें खाली करके दिखा दी।

 

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आंखें छलक आई भावनाओं के साधक की। उसने पूछा बेटे- आज फिर सब्जी किसकी खाओगे? ”आज नमक से खा लेंगे बापू! लोक-मंगल की आकांक्षा खाली हाथ न लौट जाए, इसलिये इसे स्वीकार कर लो।” बच्चे ने साग्रह विनय की। गांधी जी ने काशीफल भंडार में रखते हुए कहा-मेरे बच्चों! जब तक तुम्हारे भीतर त्याग और लोक-सेवा का भाव अक्षुण्ण है, तब तक अपने धर्म और अपनी संस्कृति को कोई दबाकर नहीं रख सकेगा।

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