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विचार मंथनः यज्ञ का वास्तिवक मर्म राष्ट्रपिता माहात्मा गांधी के शब्दों में..

Published: Sep 03, 2018 06:14:46 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

विचार मंथनः यज्ञ का वास्तिवक मर्म राष्ट्रपिता माहात्मा गांधी के शब्दों में..

vichar manthan

विचार मंथनः यज्ञ का वास्तिवक मर्म राष्ट्रपिता माहात्मा गांधी के शब्दों में..

राष्ट्रपिता माहात्मा गांधी के अनुसार यज्ञ का वास्तविक स्वरूप इस प्रकार है- ‘यज्ञ’ अर्थात् इस लोक या परलोक में बिना किसी प्रकार का बदला लिये या बदले की इच्छा किये परार्थ किया गया कोई भी काम । वह कायिक, वाचिक या मानसिक तीनों प्रकार का हो सकता है। काम या कर्म का यहाँ विशाल अर्थ करना चाहिये। ‘पर’ अर्थात् केवल मनुष्य वर्ग ही नहीं, पर जीवमात्र । इसलिए, एवं अहिंसा की दृष्टि से भी मनुष्य जाति की सेवा के लिए ही क्यों न हो, दूसरे जीवों की बलि चढ़ाना या नाश करना यज्ञ नहीं माना जा सकता । वेदादि में अश्व, गाय इत्यादि को बलि चढ़ाने का उल्लेख मिलता है। हम उसका खण्डन करते हैं। सत्य और अहिंसा की तराजू में, पशु-हिंसा के अर्थ में होम या यज्ञ चढ़ नहीं सकते । शुद्ध जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखने वाले के समस्त कार्य यज्ञ रूप के अंतर्गत आते हैं । हम यज्ञ को साथ लेकर पैदा हुए हैं—अर्थात् सदा यज्ञ के ऋणी हैं रहेंगे । मैंने तो सब धर्मों में यही आदेश पाया है कि अपनी चिन्ता ही न करनी—सब परमेश्वर के भरोसे छोड़ देना यही यज्ञ हैं ।


जिस वस्तु को जन्म से साथ लेकर हमने इस जगत में प्रवेश किया है, उसका कुछ और विचार करना निरर्थक न होगा । यह सोचते हुए कि यज्ञ नित्य का कर्त्तव्य है, चौबीसों घण्टे आचरण करने की चीज है, और यह जानते हुए कि यज्ञ का अर्थ सेवा है, ‘परोपकाराय सताँ विभूत्यः, जैसा वचन खटकता है। निष्काम सेवा परोपकार नहीं, अपना उपकार है। जैसे कर्ज अदा करना परोपकार नहीं, बल्कि निज की सेवा है, अपना उपकार है ।

 

जो यज्ञ बोझ रूप लगे, वह यज्ञ नहीं, खटके वह त्याग नहीं। भोग का परिणाम नाश है। त्याग का फल अमरता। रस स्वतन्त्र वस्तु नहीं । रस हमारी वृत्ति में है। एक को नाटक के पदों में मजा आवेगा, दूसरे को आकाश में जो नित नये परिवर्तन रहते हैं, उसमें मजा आवेगा । अर्थात् रस तालीम या अभ्यास का विषय है। बचपन में रस के रूप में जिनका अभ्यास कराया जाता है, रस के रूप में जिनकी तालीम जनता लेती है, वे रस माने जाते हैं। एक राष्ट्र या प्रजा को जो रसमय प्रतीत होता है, वह दूसरे राष्ट्र या दूसरी प्रजा को रसहीन लगता है । इसके उदाहरण हमें मिल सकते हैं ।

 

यज्ञ करने वाले बहुतेरे सेवक यह मानते हैं कि हम निष्काम भाव से सेवा करते हैं, इसलिए लोगों से जो चाहिये वह और जिसकी जरूरत नहीं है, वह भी लेने का परवाना मिल गया है, यह विचार जिस सेवक के मन में जिस वक्त आता है, तभी से वह सेवक मिटकर सरदार बनता है। सेवा में अपनी सुविधा के विचार को कोई स्थान ही नहीं है। सेवक की सुविधा को देखने वाला स्वामी—ईश्वर—है। उसे जो सुविधा देनी होगी, वह देगा। यह सोचकर सेवक को चाहिये कि जो मिले उसे, अपना समझ कर बैठ न जाय, बल्कि जितनी आवश्यकता है, उतना ही ले और बाकी का त्याग करे। अपनी सुविधा की रक्षा न होने पर भी ऐसा सेवक शान्त रहेगा, रोष-रहित रहेगा, मन में भी नहीं झुँझलाएगा। याज्ञिक का बदला सेवक की मजदूरी, यज्ञ-सेवा ही है। उसे उसी में सन्तोष होगा।

 

साथ ही सेवा-कार्य में बेगार कदापि नहीं टाली जा सकती, उसे आखिरी स्थान नहीं दिया जा सकता। अपनी चीज को सजाना और दूसरे की उपेक्षा करना अथवा मुफ्त में करना है, इसलिए जैसा और जब करेंगे तो भी काम चलेगा, इस तरह के विचार करने वाला या ऐसा आचरण करने वाला यज्ञ के मूलाक्षर भी नहीं जानता। सेवा में तो शृंगार सजाने होते हैं, अपनी समस्त कला उसमें उड़ेलनी होती है, वह है पहली चीज, और बाद में है अपनी सेवा। साराँश यह की शुद्ध यज्ञ करने वाले का अपना कुछ भी नहीं है, उसने सब कृष्णार्पण किया होता है ।

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