उनकी किताब ‘अलोन टुगेदर: व्हाई वी एक्सपेक्ट मोर फ्रॉम टेक्नोलोजी एंड लेस फ्रॉम ईच-अदर’ हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर तकनीक के असर को लेकर लिखी किताब है। यह तीन पुस्तकों की शृंखला में तीसरी किताब है। शैरी ने इसे खासतौर से हाईस्कूल के किशोरों से लेकर कॉलेज युवाओं के साथ बातचीत से जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर लिखा है। बुजुर्गों के संदर्भ में अपने शोध को आधार बनाकर उन्होंने इस बात को दिलचस्प तरीके से पेश किया है कि टेक्नोलॉजी किस प्रकार लोगों की मानसिकता बदल रही है।
इंटरनेट से पहले जन्मे लोग चिंतित
निजी कम्प्यूटर या ऐसे ही अन्य डिवाइस एवं इंटरनेट के अविष्कार से पहले जन्मे या पले-बढ़े लोग उसके बाद की टेक्नोलॉजिकल नेटिव पीढ़ी के बीच मतभेदों को लेकर काफह कुछ लिखा जा चुका है। टेक्नोलॉजिकल इमिग्रेंट्स में प्रौद्योगिकी को लेकर ज्यादा सावधानी दिखाई पड़ती है। वे हमारे जीवन पर इसके दुष्प्रभावों को लेकर चिंतित हैं। टर्कल ने यह जानने का प्रयास किया है कि तकनीक के आने के बाद हमारे बीच सामाजिक कौशल, स्नेह, बंधुत्व, आत्मीयता और समानुभूति में किस तरह का परिवर्तन आया है। अच्छाई और बुराई में फर्क करने की हमारी क्षमता में कितना बदलाव आया है। वह बताती हैं कि टेक्नोलॉजिकल नेटिव फोन कॉल को न सिर्फ हस्तक्षेप के रूप में देखते हैं बल्कि वे इसे निजता भंग करने का साधन भी मानते हैं। जबकि एसएमएस और लिखित संदेशों के जरिये एक ही समय में संवाद स्थापित करने वाले अन्य कई तरीकों को पसंद किया जा रहा है। क्योंकि ये कम हस्तक्षेपकारी और निजी चीजों को कम प्रकट करने वाली लगती हैं।
टर्कल लिखती हैं कि टेक्नोलॉजिकल युग की पीढ़ी का एक समूह अपने लिए दूसरा ऑनलाइन जीवन रच रहे हैं। वे अक्सर उस कल्पनालोक में जीने लगते हैंए जैसा वे बनना चाहते हैं और इस प्रकार वे अपने लिए एक ऐसी छवि गढ़ रहे हैंए जिससे उन्हें अपने वास्तविक रूप से न टकराना पड़े। उन्हें अपने डिजिटल अवतार से इस कदर प्यार है कि वे वास्तविकता का सामना ही नहीं करना चाहते। अब आमने-सामने की बातचीत दुर्लभ होती जा रही है, तकनीक का ही प्रभाव है। अब लोग बातचीत के दौरान तेजी से विषय बदलते रहते हैं, एक-दूसरे की बातचीत में दखल देते हैं। सूचनाओं के लिए अपने मोबाइल पर निर्भर हैं और कई बार पूरे विषय से किनारा कर लेते हैं। शेरी का कहना है कि लोग आज तकनीक के इस कदर लत लगा चुके हैं कि वे लगभग इसके गुलाम बन चुके हैं।
जोड़ नहीं दूर कर रही तकनीक
डिजिटल की वर्चुअल दुनिया बहुत आकर्षक हो सकती है लेकिन यह बहुत अकेलापन लिए हुए है। सोशल मीडिया से मुहैया कराए जा रहे ज्ञान से हमें यह लग सकता है कि हमारी संचार-क्षमता में इजाफा हो रहा है। हम तेजी से अपना नेटवर्क बढ़ा रहे हैं लेकिन असल में हम एक-दूसरे से और अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। शैरी इसके खिलाफ नहीं हैं लेकिन उनका मानना है कि सोशल मीडिया से कहीं ज्यादा प्रभावी बातचीत आमने-सामने बैठकर हो सकती है।
ज्यादातर युवाओं ने इस बात को स्वीकार भी किया है। दरअसल, आज हमें इस बात की फुर्सत भी नहीं है कि हम पीछे मुड़कर यह देख सकें कि टेक्नोलॉजी ने हमारे रिश्तों, संचार प्राथमिकताओं और दुनिया व स्वयं को देखने का नजरिया किस तरह प्रभावित हुआ है। इसलिए चंद घंटों की फुर्सत निकालकर अपनों के साथ बैठकर आंखों की भाषा और साथ होने के अहसास का आनंद लीजिए और थोड़ा चिंतन कीजिए। तब हमें आभास होगा कि प्रौद्योगिकी ने किस प्रकार हमें बदल दिया है।