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कउड़ी नदाइस त बहुतो के मोल कमतियागे!

locationरायपुरPublished: Jan 22, 2019 07:24:21 pm

Submitted by:

Gulal Verma

का-कहिबे…

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कउड़ी नदाइस त बहुतो के मोल कमतियागे!

द दा ! ए ‘कउड़ीÓ का होथे?
तोला अतको गियान नइये। इस्कूल म का पढ़थस? कोन मास्टर पढ़ाथे? का पढ़ाथे? कुछु नइ जानस, तेहा। काली जुअर तोर इस्कूल जाके पता करहूं के मास्टर पढ़ाथे के नइ, या फेर तेहा नइ पढ़त, गदहा हस। दिन-रात खेलई-कूदई, नइते टीवी देखई। उपराहा म आंखी गड़ा-गड़ा के मोबाइल कोचकई।
मेहा तो सिरिफ ‘कउड़ीÓ का होथे? कइसे होथे, काला कउड़ी कहिथे, कइसे दिखथे? का काम आथे, ए पूछत हंव! बेटा ह घलो गुस्साए बानी, भड़के असन जुवाब दीस।
अरे भोकवा! अतको नइ जानस। एक जमाना म कउड़ी ह पइसा कस चलत रहिस। अउ, कउड़ी ह खेले के काम घलो आवय। आजो कतकोन जगा कउड़ी के खेल खेले जाथे। बेटा! एक समे तो बजार म फूटी कउड़ी घलो चलत रिहिस हे। तभे तो ए कहावत बनिस के -‘मोर कना तो फूटी कउड़ी घलो नइये।Ó इस्कूल के किताब म घलो ए कहावत ह लिखाय हे। तेहा कभु नइ पढ़े हस।
अच्छा! कउड़ी याने ‘मनखे के अउकातÓ के बात कहत हस। मेहा तो कतकोनझन ल ‘दू कउड़ी के मनखेÓ कहत सुने हंव। दाई ह घलो कतकोन पइत बबा ल ‘दू कउड़ी के मनखे नइअस अउ बने-बने खाय बर मांगथसÓ कहिथे।
बेटा! जब तेहा जानथस त पूछथस काबर के कउड़ी का होथे?
ददा! असल बात ए आय के मेहा तो इही समझत रहेंव के ‘मनखे के मोल दू कउड़ी के नइये, त कउड़ी ह हीरा-पन्ना, सोना-चांदी कस अब्बड़ कीमती जिनिस होही। जेकर मेर कउड़ी नइ रहत होही तेन ह ‘मोर कना तो फूटे कउड़ी घलो नइयेÓ काहत होही।
बेटा! ऐहा लोगनमन ऊपर हावय के वोमन ‘कब, कइसे, काबर, काकर बर, कोन जगा कउड़ी सब्द के परयोग करथें।
ददा! तभे तो मेहा परेसान हंव के ए ‘कउड़ीÓ आखिर होथे का? लागथे, दूसर मनखे के निंदा-चारी करे, वोकर अउकात बताय, वोला नीचा देखाय, अपमान करे खातिर लोगनमन ‘कउड़ीÓ के नांव लेथे।
बेटा! जइसे अब कउड़ी के कुछु मोल नइये, उही हाल गरीब मनखे के होगे हे। नेतामन तो आम मनखे ल ‘दू कउड़ीÓ के समझथें। जेकरमन तीर पद (कुरसी), पइसा (जायदाद) अउ ताकत (अधिकार) हे, वोमन अपन ले छोटेमन ल दू कउड़ी के समझथें। नेतामन तो एक-दूसर ल दू कउड़ी के मानथें। जेन नेता मंतरी बन जथे वोहा पारटी के पदाधिकारी अउ दूसर नेतामन ल दू कउड़ी के समझथे।
सिरतोन! हमर देस म अइसे दू कउड़ी के लोगनमन के भरमार घलो हे जउनमन अपन परिवार, पइसा, भाग, तिकड़म अउ जान-पहिचान के चलत वो नौकरी-चाकरी, पद, जगा म पहुंच गे हे, जिहां बइठके हमर सरीखे ‘फूटी कउड़ी दामÓ वालेमन के तकदीर के फइसला करथें।
ऐहा बड़ दुख अउ चिंता-फिकर के बात आय के लोकतंत्र म आम जनता के कीमत फूटी कउड़ी जतेक नइये। आजकाल तो घर-परिवार, समाज के संगे-संग राजनीति म घलो सियानमन ल दू कउड़ी के समझे बर धर ले हें, त अउ का-कहिबे।

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