इससे पहले 6 मई को कपाट खुलने की प्रक्रिया के अंतर्गत शीतकालीन गद्दीस्थल से भगवान श्री केदारनाथजी की चल विग्रह पंचमुखी मूर्ति ने प्रस्थान किया था। चल विग्रह मूर्ति को विधिवत स्नान कराया गया था। स्नान कराने के बाद मूर्ति को डोली में विराजमान करके फूल मालाओं से सजाया गया था।
इसके बाद पुजारियों द्वारा केदारनाथ की विधिवत पूजा-अर्चना की गई। 7 मई को डोली गौरीकुंड में विश्राम करते हुए 8 मई को केदारनाथ पहुंची और 9 मई को ब्रह्ममुहूर्त में मंदिर के कपाट खोल दिए गए।
दिव्यज्योति के दर्शन का भक्तों को इंतजार कथा के अनुसार, शीतकाल में जब मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं तो मंदिर में पूजा की जिम्मेदारी देवताओं की रहती है। अर्थात इस समय देवतागण भगवान बद्रीनाथ और केदारनाथ की पूजा करते हैं। ऐसी भी बातें कई बार सुनने में आती है कि मंदिर के बंद कपाट के अंदर से घंटियों की आवाजें सुनाई देती हैं।
कहा जाता है कि शीतकाल में जब मंदिर के कपाट बंद करते समय अखंड दीप को जलाकर रख दिया जाता है और ग्रीष्म ऋतु में जब कपाट खुलता है तो वह ज्योति जलती रहती है। माना जाता है कि इस दिव्यज्योति का दर्शन बहुत ही पुण्यदायी होता है। ग्रीष्म ऋतु में जब मंदिर के कपाट खोला जाता है तब इस दिव्यज्योति के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं और दर्शन करते हैं।
यहां का जल अमृत के समान कहा जाता है कि यहां का जल अमृत समान होता है। क्योंकि केदारनाथ मंदिर के पीछे स्थित कुंड में केदारनाथ का जल रहता है। बताया जाता है कि यहां आनेवाले श्रद्धालु इस जल को ग्रहण करते हैं। मान्यता है कि इस कुंड के जल ग्रहण करने से त्वाचा संबंधी बीमारियां दूर हो जाती है।